साहित्य की अविरल प्रवाह है कैलाश झा किंकर की कौशिकी
      समीक्षक- संजय कुमार अविनाश 

फाल्गुन की विदाई के दिन पत्रिका कौशिकी का आगमन हुआ। अर्थात होलिका दहन के दिन मुझ तक पहुँच गई। होली के दिन मुझे उपन्यास अग्निलीक को पढ़ना था। किंतु, कौशिकी ने उसे पीछे छोड़कर अपने साथ ले गई। आवरण पृष्ठ पलटने के साथ ही उत्तर प्रदेश के नवांकुर अनुज अमन सिंह की तस्वीर देखकर मायूस होना पड़ा। कारण विगत वर्ष युवावस्था को त्याग कर कइयों की आँखें नम कर भू-लोक छोड़ गये। उनकी स्मृति को बनाए रखने के लिए 'स्मृति तर्पण' नाम से संजोया गया, जो वाकई प्रशंसनीय है, संवेदना की लहर है।

संपादकीय लाजवाब है। परिपक्व संपादक की पहचान कराती है। साहित्यिक पत्रिकाओं में जहाँ संपादक संपादकीय के बहाने अपनी कुंठा राजनीतिक चेहरे पर उतारते हैं, तो कहीं गाहे-बगाहे साहित्य से इतर शब्दों की भीड़ को संबोधित करते हैं। वहीं आदरणीय कैलाश झा किंकर जी ने 'माहिया के बहाने' यात्रा को कैसे सुगम बनाया जाए, उसे सिखलाते हुए माहिया छंद को बारीकी से उकेरा है।

संपादकीय के बाद के पृष्ठों में चर्चित हो चुके युवा व्यंग्यकार विनोद कुमार विक्की जी द्वारा 'बहत्तर हूर की चाह में' व्यंग से रू-ब-रू हुआ। सटीक व्यंग्य है। वैसे धर्मभीरु के आँखों की पट्टी खोलती है, जिसने धर्म की आड़ में आकर अनयान्य सीधे-सादे लोगों को अपने आकाओं के कहने पर कत्ल-ए-आम में विश्वास रखता है। बहत्तर हूर की चाह में अपनी भरी जवानी  में जिन्दगी पर फुलस्टॉप लगाकर भी नहीं तड़पता। जबकि सच में वह तड़पता है, जी-भर के तड़पता है।

पिछला अंक भी आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जी पर केंद्रित था और इस अंक में भी एक आलेख 'जानकी वल्लभ शास्त्री : व्यक्ति एवं सामाजिक दर्शन' नाम से संकलित है, जिसे डॉ. ईश्वर चन्द जी ने लिखा है। यह आलेख केवल दो पृष्ठों में है, पठनीय है, सम्यक चर्चा की गई है। रचनाकार के ही शब्दों में - 'वास्तव में दर्शन जीवन और जगत के बीच सेतु का काम करता है, जो सार्थकता को लपेटे स्वयं को भी मंत्र देता है।' वहीं विजय कुमार राय ने ग्रामीण लोकगीतों में कोयल को माध्यम बनाकर सटीक चित्रण किया। सच में राग, द्वेष, विरह और वेदनाओं को उकेरा है। जीवन के हर-एक पहलू समाहित है। अर्थात ग्रामीण जीवन में संस्कारों के साथ लोकगीत का संबंध अटूट है, निर्लोभी है। शंकर लाल माहेश्वरी जी का आलेख 'बालक का प्रथम पाठशाला है, परिवार' शिक्षाप्रद है, जिसे अमल कर के बच्चों में अच्छे संस्कार प्रज्वलित कर सकते हैं। आज समाज में अव्यवहारिक लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। आपसी द्वेष, चोरी-डकैती, ईर्ष्या आदि चरम पर है, जिसका प्रथम और अकाट्य कारण पारिवारिक अव्यवस्था ही माना गया है। माहेश्वरी जी ने आलेख के माध्यम से कहा, 'वही समाज विकसित माना जाता है, जिसके सभी सदस्य मानवीय गुणों को जीवन का आधार बनाकर जीवन जीने का सद्प्रयास करते हैं।' वहीं दूसरी पंक्ति में लिखते हैं, 'जिस परिवार में अनैतिक आचरण, कुण्ठित व्यवहार, झगड़ालू दृश्य, बेईमानी, क्रूरता और अनैतिक का वातावरण होगा, उस परिवार के बच्चे बिगड़ैल होंगे और आगे जाकर गणना असामाजिक तत्वों में होने लगेंगी।' 

मेहमान और मेज़बान शीर्षक आलेख सीताराम गुप्ता जी ने बड़ी ही बेबाकी से लिखा है, जिसे हर कोई भोगे होंगे। वाकई, इस आलेख को पढ़कर आत्मबोध से प्रेरित होंगे। छोटी-छोटी बातें, जिसे हमसब नजरअंदाज करते आये हैं, उसपर सटीक व सार्थक विश्लेषण है।

अब कहानी की बात करूँ तो चाहे छोटी हो या बड़ी, वह मुकम्मल होने से पीछे रही है। हाँ, विषय-वस्तु व कहन में यथा-स्थान सही है। कहानी 'कोई शिकायत नहीं मिलना चाहिए' शिक्षा पदाधिकारी के द्वारा धौंस के पीछे भ्रष्टाचार की पोल खोलती है, तो वहीं साथी शिक्षक द्वेषपूर्ण रवैया से लबरेज है। हाँ, कहानी में शब्दों को जबरदस्ती ठूंसा भी गया है। 'कशमकश' शीर्षक कहानी पठनीय के साथ विचारणीय भी है। प्रसिद्धि के पीछे की दास्तान को हर-एक को पढ़ना चाहिए, गुणना चाहिए।

डॉ. रामदेव प्रसाद शर्मा जी ने पौराणिक कथाओं के पात्रों को आधार बनाकर 'जिज्ञासा की शांति' शीर्षक नामक कहानी में कई सुक्ति, प्रसंग, दोहा आदि का सहारा लिया। मुकम्मल कहानी तो नहीं कही जा सकती है, किंतु, शिक्षाप्रद व सामान्य ज्ञान के अंतर्गत के साथ संदेशप्रद है। कहानी का मुख्य बिंदु है, कितनी बड़ी शक्ति की छत्रछाया में क्यों न रहे, अनीति व प्राणियों के अनिष्ट करने वाले का पतन निश्चित है। 'निशु की आवाज' कहानी है, कहानी की श्रेणी में रखी गई है। किंतु, इसमें कहानी का तत्व है ही नहीं, बल्कि घटनाक्रम की पुनरावृत्ति है।

इस अंक की खासियत संस्मरण से है, जैसा मैंने अनुभव किया। रोचक है। पठनीय भी है। इन संस्मरणों में 'साहित्य का विकास संस्कृति का मिलन' कहकर मुकेश कुमार सिन्हा जी ने खगड़िया में हुए आयोजन '१७वाँ महाधिवेशन जानकी वल्लभ शास्त्री' का हृदय से उद्धृत किया है। इसी प्रकार स्मिताश्री जी ने 'नत हृदय से सलाम' शीर्षक के बहाने अपनी बात रखी, तो वहीं आदरणीया विभा माधवी जी ने '१७वाँ महाधिवेशन जानकी वल्लभ शास्त्री स्मृति पर्व' शीर्षक में संपूर्ण सत्र की व्याख्या की है, जो क्रिकेट मैच की तरह आँखों देखा हाल जैसा प्रतीत होता है। ऐसे शब्द साधकों को पढ़कर हमेशा-हमेशा के लिए मानस-पटल पर अंकित हो जाना स्वाभाविक है।

इस अंक में कुल आठ पुस्तकों की समीक्षा भी संकलित है। समीक्षा व समीक्षकों से मतभेद हमेशा रही है मेरी। दरअसल, कविता-संग्रह, कहानी-संग्रह, गज़ल-संग्रह  आदि जैसी पुस्तकों पर समीक्षा लिख देना मामूली बात लगती है। हालांकि इन बातों में विरोधाभास है, किंतु, मुझे परवाह नहीं है। इसलिए कि मेहनत कम लगती है और समीक्षक रूप धारण करने का आसान तरीका भी है। यद्यपि, उपन्यास सरीखे पुस्तकों की समीक्षा लिखना दुरुह कार्यों में एक है। जहाँ दो-चार कविताएँ, दो-चार कहानियाँ पढ़कर पूरी पुस्तक की समीक्षा बताई जाती है, वहीं उपन्यास की समीक्षा करने में कतराते हैं। कारण यही है कि उपन्यास की समीक्षा लिखने के लिए दो-चार पन्ने से काम नहीं चलता, बल्कि पूरी पुस्तक पढ़नी पड़ती है। इस कड़ी में आद. विभा माधवी जी ने उपन्यास 'रेगमाही' को मनोयोग से पढ़ी हैं और उपन्यास पर अपनी बात रखी हैं।

कौशिकी में संकलित सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं संपादक महोदय के लिए जितना भी कहूँ, वह कम है। 

साहित्य में रूचिरत पाठकों के लिए निःसंदेह  एक बेहतरीन उम्दा पत्रिका बन चुकी है कौशिकी!



          संजय कुमार अविनाश 



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