'एक टुकड़ा आज'
आज समाज में जो घटित हो रहा है। साहित्यकार समाज का एक

हिस्सा होने के नाते वो सब कुछ देख रहा है इस घटनाक्रम को अपनी कल्पना

के साथ मिलाकर रचनाकार एक नये ढंग से देश दुनिया के सामने रखने की

कोशिश करता है। ‘एक टुकड़ा आज' में शामिल रचनायें मौजूदा वक्त का

आईना है। उसमें समाज की समस्त अच्छाइयां और बुराइयां अपने पूरे शबाब के

साथ प्रतिबिम्बित हो रही हैं। लोग उन्हें पढ़कर अपने-अपने नजरियात के

मुताबिक उनके मतलब निकालेंगे। लफ्जों में वो ताकत है कि समय, स्थान,

व्यक्ति के साथ-साथ उसके अर्थ बदलते जाते हैं। गजल का हर अशआर

आजाद रहकर अपनी बात कहता है। लेकिन बहर काफिया और रदीफ उन।

अश्आर को एक माला में पिरोकर रखते हैं। यही गजल की खूबी है। हजारों

साल पहले की घटनाओं को वर्तमान के साथ मिलाकर उसे पढ़ने वाले के दिलों

दिमाग तक पहुँचा देना शायर का कमाल होता है। जो जितना इस फन मा

माहिर होता जाता है वो उतनी ही बलन्दियाँ हासिल करता चला जाता है। एक

टुकड़ा आज' में मौजदा वक्त के एक बहत ही छोटे से हिस्से को गजल

पैरहन में पेश करने की कोशिश की गयी है। जिसे पसन्द नापसन्द करना पढ़ना

वाले के विवेक पर निर्भर है। अगर हजारों अश्आर में से एक भी किसी एक बरा

की जिन्दगी में थोड़ी सी भी तब्दीली लाने में कामयाब हो जाता है ता

अपनी खुशनसीबी समझूगा।

मेरी वालिदा (फातिमा बानो इदरीसी) की ये ख्वाहिश थी कि मैं


जिन्दगी में कुछ ऐसा काम करू। जिससे देश और समाज में मेरा एक अलग

काम हो। अपनी मां की ख्वाहिशों के मुताबिक नौकरी और रोजमर्रा के कामों

की मसरूफियत के बीच भी साहित्य सेवा का चराग जलाये रखने की कोशिश

कर रहा हूँ। इस काम को पूरा करने में मेरे परिवार के लोगों, सहकर्मियों और

मित्रों ने बराबर मेरा साथ दिया है और कदम कदम पर हौसला अफजाई की

है। मैं दिल की तमाम गहराईयों से उन सभी का शुक्र गुजार हूँ।

कानपुर हमेशा से अपनी अखण्डता, निडरता और फक्कड़पने के

लिये जाना जाता है। यहाँ के मजदूर अपनी जुझारू प्रवृत्ति और गैर मामूली

इन्सानी जज्बे के लिए सिर्फ हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर

हैं। एक सिलाई कामगार एवं आर्डिनेन्स पैराशूट व ओ एफ सी (कानपुर) के

वर्कर के घर जन्म लेने वाले हमीद कानपुरी में उन चीजों का पाया जाना एक

फितरी बात है। अपने ठेठ कानपुरी अन्दाज और बेलागपन के बावजूद गज़लों

को गज़ल के लिबास से बाहर जाने की इजाजत नहीं दी गयी है। कानपुर की

बन्द होती मिलों के मजदूरों की छटपटाहट, उनके दर्द और संघर्ष को करीब

से देखने वाला ही उन्हें शब्दों की माला में पिरो कर पेश कर सकता है। एक

टुकड़ा आज' इसी क्रम की एक ईकाई है।

इन 101 गज़लों को एक किताब की शक्ल में पेश करने की कोशिश

में मदद के लिये मैं जनाब हीरा लाल खोजी, जूही लाल कालोनी कानपुर

जनाब सतीश गुप्ता (सम्पादक त्रैमासिक पत्रिका अनन्तिम) व जनाब पंकज

दीक्षित का तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ। इन लोगों की मदद के बिना।

'एक टुकड़ा आज' को अगर किताब का रूप देना मुश्किल होता।।

 


               (अब्दुल हमीद इदरीसी)



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