निरंतर बहते अश्रु धारा
जब रघुराये रोते देखा।
बिलख बिलख हाय
लखन कहते देखा।
तीर लगा लखन ह्रदय में
गति रुकी रघुराई की है।
रोते विनय कर लखन से
बोल कछु बोल
मेरे लखन नयन तो खोल
छाया सन्नाटा ब्रह्मांड में जब
बोलने वाला मौन हुआ
बिलख रहे रघुरायी
ये कैसा संयोग हुआ
थम गई जैसे सारी दुनियां
अंबर भी गतिहीन हुआ
एक लखन के सोने से
गम्भीर भी आसीन हुए
व्याकुल नैना झलक रहे है
सोच सोच कर कि
हाय क्या मुँह दिखाऊँगा उर्मिल को
जो पति वियोग में राह तक रही
क्या बोलूंगा उस माता को
जिसने अनुज को वन भेज दिया था
माँ कौशल्या की धरोहर हाय
राम न संभाल सके।
किस मुँह लौटूंगा अयोध्या जो
भाई न जीवित हो
किस मत ये सम्मत हो कि
नारी की खातिर भाई का बिलदान हो।
राम नही अगर लखन नही हो
एक देह दो प्राण है हम।
उठ लखन लाल,मेरे प्रिय भ्राता
भैय्या भैय्या तो बोल
रस कानों में तू घोल
मेरे लखन कछु बोल
संध्या चतुर्वेदी
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