स्वतंत्रता दिवस पर बचपन की यादें- संस्मरणत्रता दिवस पर बचपन की यादें- संस्मरण
 स्वतंत्रता दिवस पर बचपन की यादें- संस्मरण

 

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इतना लुभाया जवानी ने कि "बचपन" को छोड़ना पड़ा। बचपन में लगता था कि हम ये करेंगे वो करेंगे, लेकिन बड़े होने पर कंधों पर जिम्मेदारियों का इतना बोझ हो जाता है, कि इंसान बचपन के सपने सब भूल जाता है। कल अगले दिन "74 वे स्वतंत्रता दिवस" है स्वतंत्रता दिवस को मनाने में बचपन जैसी ललक नहीं रह जाती है।  

 रह जाती है। तो केवल और केवल स्वतंत्रता दिवस मनाने की पूर्ति करते हैं। तिरंगे झंडे के नीचे खड़े होकर देश के तमाम युवा आज फोटो खींचकर फेसबुक और व्हाट्सएप पर सुर्खियां बटोरने के चक्कर में लगे रहते हैं। लेकिन हम सबके बचपन में यह सब सोशल मीडिया नहीं थी। ना कोई दिखावा। फिर भी हमें बहुत खुशी मिलती थी।

 

मुझे याद है, जब मैं दो या फिर तीन कक्षा में पढ़ता था। महीनों पहले स्वतंत्रता दिवस की सभी बच्चों में खुशी की लहर होती थी। एक महीने पहले रिहसल करने की तैयारियां कर देते थे। अगर घर वाले बोलते थे कि बेटा आज स्कूल मत जाना। आज घर पर काम है, तो उन्हें यह अवगत कराकर स्कूल चले जाते थे। कि स्कूल में 15 अगस्त की तैयारियां चल रही हैं।

सच कहूं तो बचपन में!  मैं नहीं जानता था कि स्वतंत्रता दिवस क्या होता है। हम तो केवल पंद्रह अगस्त चिल्लाते फिरते थे। बस ये पता था कि उस दिन हमारा देश आजाद हुआ था।पिताजी से कहते थे, कि पिताजी पंद्रह अगस्त आ रहा है। हमें नई ड्रेस व काले रंग के जूते चाहिए। पिताजी कभी भी मना नहीं करते थे। कहते थे ठीक है।आपके लिए हम ड्रेस ले आएंगे।

पंद्रह अगस्त के एक दिन पहले सभी लोग कपड़े जूते तैयार रखते थे। जब रात को सोते थे, बस यही सोचते थे। कि मैं कल स्कूल में देश भक्ति गीत कविता सुनाऊंगा। जिससे गुरु जी हमें अच्छी इनाम देंगे।

 

पंद्रह अगस्त की सुबह 6:00 बजे तैयार होकर माता-पिता घर में बड़े लोगों के पैर छूकर स्कूल जाते और घर पर छोटे बच्चों से घर पर बूंदी के लड्डू लाने का वादा करके जाते थे। गुरु जी के स्कूल आने से पहले बच्चे स्कूल पहुंच जाते थे। जब गुरु जी व बहन जी आते तो सब बच्चे उनके पैर छुते थे।आज नसीब नहीं है कि उनके पैर छू सके। उसके बाद गुरु जी "वह शक्ति हमें दो दयानिधे" प्रार्थना करवा कर "राष्ट्रगान" के लिए सावधान की स्थिति में खड़े कर देते थे। गुरु जी बोलते थे। कि ध्वजारोहण होने के तुरंत बाद राष्ट्रगान गाया जाएगा। उसके तुरंत बाद तिरंगे को लेकर गांव की परिक्रमा की जाएगी।

 

मेरी कोशिश हमेशा यह रहती थी। कि मैं तिरंगा झंडे को पकड़कर गांव में भ्रमण करू। झंडे में बांस बहुत लंबा हुआ करता था। रास्ते में देश के महान पुरुषो के जयकारे, भारत माता की जय, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झंडा ऊंचा रहे हमारा आदि नारे लगाया करते थे। जब गांव में जाते तो कोई व्यक्ति बीस रुपए,कोई ₹पचास रुपए, कोई सौ रुपए बच्चों की ईनाम के लिए देते थे। जैसे ही मैं अपने घर के नजदीक आते ही झंडे को साथी को थमा कर घर की तरफ दौड़ते हुए पिताजी से जाकर बोलते था। कि उसके पिताजी ने इतने पैसे दिए हैं, उन्होंने इतने पैसे दिए, आप भी दे देना। भले ही मेरे पिताजी हमेशा कुछ ना कुछ सहयोग करते थे। फिर भी हमें डर रहता था। कि कई पिताजी भूल ना जाएं जिससे कोई कहे ना!  कि उसके पिताजी ने कुछ नहीं दिया। जब गांव का पूरा भ्रमण करके स्कूल में एक स्थान पर छात्र- छात्राओ को बिठा देते थे। हमेशा लड़कियों  के प्रस्तुत कार्यक्रम बहुत अच्छे होते थे। फिर भी हम कोई देश भक्ति गीत या फिर कविता सुनाने पर एक पेन और एक साहनी प्रकाशन का पहाड़ा मिलत था। इसमें तीन विषय एक में होती थी। यह पुरस्कार पाकर हम सबका चेहरा फूल जैसा खिल जाता था। आज कितना ही बड़ा पुरस्कार मिल जाए। लेकिन एक पेन और पहाड़े की  बराबरी कभी नहीं कर सकता!

 

कार्यक्रम के बाद सभी बच्चों को बूंदी मिलती थी। बूंदी को ना खाकर घर पर किए वादे को पूरा करने के लिए बच्चों के साथ आकर खाते थे। आज कितने ही वादे करें। सब टूट जाते हैं। बचपन एक ऐसा युग होता है। है जो मनुष्य की पूरी उम्र में सबसे अच्छा दौर होता है। बचपन में ना कोई भेदभाव!  घर में बच्चे लड़ाते झगड़ते लेकिन शाम को खाना सब बातें भूल कर एक ही खाते थे। बचपन की यादें जितनी बताई जाए उतनी कम है। 

आज स्वतंत्रता दिवस बचपन की अपेक्षा फीका सा लगता है

 आखिर बचपन की बात निराली होती है....................

 


अवधेश कुमार निषाद मझवार

 



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