हम भारत और नेपाल का सदियों से बेटी और रोटी का रिश्ता रहा है, भारत में या नेपाल में किसी प्रकार की कोई भी घटनाएं घटती है तो कहीं ना कहीं दोनों देशों पर गहरी असर पड़ती ही है ।देखे तो नेपाल में इन दिनों फिर से राजनीतिक उठापटक चालू हो गया है, देखने में आया है कि राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी ने नेपाल में संवैधानिक राजशाही तथा हिंदू राष्ट्र की बहाली के लिए पिछले दिनों काठमांडू में प्रदर्शन भी किया। फिर प्रदर्शनकारियों ने अपने सभा के दौरान प्रधान मंत्री केपी शर्मा ओली द्वारा संसद भंग किए जाने की आलोचना भी किए, वही नेपाल को फिर से हिंदू राष्ट्र घोषित करने तथा देश में संवैधानिक राजशाही बहाल करने की भी मांग किया गया है। वैसे साथियों देखे तो नेपाल में लोकतंत्र की रक्षा तथा राजनीतिक स्थिरता के लिए अब संवैधानिक राजशाही तथा हिंदू राष्ट्र की बहाली के अलावा ऐसा लगता है कि कोई भी विकल्प नहीं है।देखे तो 2006 के सफल जन आंदोलन के बाद राजशाही को खत्म कर दी गई थी तथा फिर 2008 में नेपाल को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया था। हम सभी जानते ही हैं कि 2018 में नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड की पार्टी ने मिलकर ही एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी बनाई थी, कहीं ना कहीं इस पार्टी की नींव रखने में चीन की अहम भूमिका बताई जाती रही है, ऐसे में नेपाल की सत्ताधारी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी पर कहीं ना कहीं चीन का गहरा प्रभाव पड़ा है। इसी कारण से दोस्त चीन भी नहीं चाहता है कि पार्टी के भीतर फुट पड़े , लेकिन साथियों इस बार फिर से यह पार्टी विभाजित होने के कगार पर पहुंच गई है। वैसे शुरुआत से ही देखे तो नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता के लिए कोई एक ही कारण हो ऐसा नहीं कह सकते हैं, नेपाल में दशकों की राजनीतिक उथल-पुथल के बाद यह कहीं ना कहीं यह पहला मौका था जब नेपाल में लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर बहुमत वाली स्थाई सरकार आई थी, जो कि इस सरकार से लोगों की अपेक्षाएं बहुत थी, लेकिन फिर नेपाल में संसद भंग करनी पड़ गई । देखे तो बहुमत होने के बाद भी स्थायित्व का अभाव रहा है,जिसके लिए राजनीतिक पार्टियों , उनकी नीतियों व कहीं ना कहीं उनकी अनुभव और दूरदर्शिता को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। देखे तो नेपाल में 90 के दशक में माओवादियों ने देश में लोकतंत्र कायम करने और एक नए संविधान की गठन करने के अपने संघर्ष में कामयाब तो हो गए लेकिन उसमें लगातार स्थिरता ही बनी रही, अब सोच कर देखो कि नेपाल में संसद बहाल होने के बाद से अब तक 10 प्रधानमंत्री हो चुके हैं। अभी तक किसी भी प्रधानमंत्री ने नेपाल में 5 वर्ष का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएं हैं। देखे तो भारत की नेपाल में गहरी हिस्सेदारी है और वह चीन के प्रभाव में वृद्धि भी नहीं देखना चाहता है, लेकिन कुछ बीते हुए मौकों को याद करा जाए तो हमें पता चलता है कि ओली भारत का नेतृत्व करने वाले व्यक्ति नहीं है। हमारे यहां भी कुछ लोग हैं जो नेपाल में राजशाही को बहाल करना चाहते हैं, हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं, सरकार में उनका कहीं ना कहीं उनका अपना प्रभाव और हिस्सा हो सकता है लेकिन भारत का सबसे बड़ा हित नेपाल में लोकतंत्र की मजबूती में है।
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