बच्चे स्वभाव से ही चंचल होते है। उनकी इस चंचलता को दिशा देने की बहुत जरूरत होती है। बच्चे एक ही तरह का कार्य ज्यादा देर तक करने में, एक ही स्थान पर बैठने मे, चुपचाप बैठे रहने में, ज्यादा देर तक सुनने में, ऊभाव महसूस करते है। और प्रायः विद्यालयों में बच्चों को चुपचाप बैठकर पढ़ने पर ही शिक्षक ज्यादा बल देते है।अधिकांश विद्यालयों मे शिक्षको द्वारा इन अरूचि पूर्ण कार्यो के बारे में बच्चों को बार-बार समझाते हुए देखा जा सकता है।इस समझाइश में ही शिक्षको आधी उर्जा प्रतिदिन विद्यालयों मे खर्च हो जाती है।अंत: शिक्षक को कक्षा-कक्ष में बच्चों का मन लगाना है। तो उसे बच्चों की सर्जनशीलता के गुण को काम में लेना होगा। बच्चों को नए-नए चित्र बनाने, मिट्टी व कागज के खिलौने बनाने, समुह मे चर्चा करने, कहानी, कविता लिखने पढ़ने, सुनने, नाटक करने,खेल खेलने, लकड़ी के टुकड़ों से आकृतियां बनाने, प्लेस कार्ड को देखकर चित्र पठन, वर्ण पठन, शब्द पठन, कंकड़ो, तिल्लियों, कंचों से खेलने में, कपड़े से गूड्डा- गूड्डी बनाने में, चित्रों में रंग भरने में, सजावट करने में, मंजीरे बजाने में, गाना गाने मे (हारमोनियम) बजाने में, नाचने में,स्लेट पर गोले बनाने में, स्लेट पेंसिल से स्लेट पर खेलने में, दर्पण में मुंह देखने में, पशु, पक्षियों की कहानियां सुनने, आदि कई तरह के सृजनात्मक कार्यो के माध्यम से ही शिक्षण करवाना चाहिए। बच्चों को इन सब रचानात्मक कार्यो को करने में बहुत आनंद आता है। आनंद आने से कार्य करने में उनकी रुचि, जिज्ञासा बढ़ती है।
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