गुरु पूर्णिमा के अवसर पर बेटे के शिक्षक को लिखा गया पत्र।

आज बैठे बैठे ही मन में विचार आया कि आपसे बेटे की शिक्षा- दीक्षा के बारे में अपने मन के विचार शेयर करूं।

आप और आपका परिवार हमेशा प्रसन्न, मौज में रहे। ईश्वर दिनोंदिन आपकी खूब महिमा बढ़ाएं।

गुरुजी बेटे की शिक्षा को लेकर मेरी आपसे कुछ अपेक्षाएं है।जो निम्नलिखित है।

वैसे तो आप सभी बच्चों को बहुत अच्छी शिक्षा दे रहे है। आपकी शिक्षा पाकर बच्चे ऊंचे ऊंचे पदों पर नियुक्त हो रहे है। 99% अंक ला रहे है। आप भी समय पर अपना पाठ्यक्रम पूरा करवा रहे है। रात दिन अभ्यास करवाने में लगे रहते है। 
एक सच्ची घटना के आधार पर मैं अपनी बात आपको कह रहा हूं।
एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने-लिखने वाले कुछ विधार्थी टेम्पों में बैठकर बस अड्डे आ रहे थे। रास्ते मे अचानक उन्होंने टेम्पों चालक को टेम्पू रोकने के लिए कहा,उसने पुछा क्यों तो जवाब दिया हमें पेशाब करना है।चालक ने कहा रास्ते में नही,आगे टाॅयलेट बना है,अभी हमारे देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है।आप सब पढ़ें लिखे हो।इतना कहते ही उनको बहुत गुस्सा आया और उन्होंने उसको फिल्म स्टाइल में इतना मारा की वह मर गया।हम सब जानते है 90-95% वाले ही बच्चों का वहां प्रवेश हो पाता है।

गुरुदेव कहने का मतलब मेरा यह है कि क्या हमे उनको अच्छा पढ़ा-लिखा मानना चाहिए? इसलिए
गुरुदेव मेरे हिसाब से इन सब बातों से ज्यादा एक बच्चे में जरूरी है- संस्कार जैसे दूसरों का सम्मान करना, दूसरों की कद्र करना, परवाह करना, चिंता करना आदि।
वह समाज के प्रति संवेदनशील बने। उसे दूसरों के दर्द को समझने, उसको हल्का करने का महारथ भी आता हो। ऐसा नहीं हो कि वह ऊंची-ऊंची डिग्रियों के बोझ तले दब जाए और इन सबको भुला बैठे। ऊंची-ऊंची डिग्रियां उसे नौकरी तो दिलवा सकती है।
पर समाज में मान सम्मान, मन की शांति नही दिला सकती। यह सब तो एक दुसरे से प्रेम करने, सहयोग करने व आंसूओं को पोंछने से ही मिलते है।
संस्कार और आचरण ही उसे हौंसला देगे अपनी सच्ची बात पर कायम रहने का।दुसरे चाहे कुछ भी कहे,समझे पर आपको उसे समझाना है की सच्ची बात पर हमेशा अड़िग रहना है। क्योंकि कहा भी गया है कि *ईश्वर के यहां देर हो सकती है, पर अंधेरे नही*।अंत मे सत्य की ही विजय होती है।

आपकों उसमें ऐसी नेतृत्व क्षमता के बीज़ भी बोना है जो खुद हर काम मे पहल करे। *मैं कर सकता हूं*  यह उसका ध्येय वाक्य होना चाहिए। किसी का पिछलग्गू नही बने। भीड़ से अलग सोचकर व समझकर उसे अमलीजामा पहनाने का माद्दा उसमे आना चाहिए।

आपको उसे जीवन मे आने वाली समस्यांओ से कभी नही घबराना व अपना धैय व हौंसला कभी नही खोना। यह भी सीखाना होगा। क्योंकि भावी जीवन में उसको विकट परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ेगा जिनका वह धैर्य के साथ मुकाबला कर सके। हमारे राजस्थान में एक कहावत भी है। *गम खाता है वही बादशाह बनता है*

उसे आप किताबें पढ़ने के साथ-साथ प्रकृति को पढ़ना भी सीखाना जैसे हरे भरे खेत, मैदान,पक्षियों का कलरव व उडना, बगीचे मे खिले फूल,मोर का नाचना, बादलों की गड़गड़ाहट आदि को भी निहारे, इनमें भी वह आनंद की अनुभूति करे।

*जीवन का सच्चा ज्ञान व आनंद प्रकृति मे समाया है यह भी आप उसे जरूर बताएं*।

उसे खुद पे विश्वास के साथ-साथ दुसरो पर भी विश्वास करना सीखाए।
 जीवन में यह बहुत बड़ी बात है। जब आप दुसरो पर भरोसा करेंगे तो उनका भी आप पर भरोसा बढ़ने लगता है। जहां विश्वास बढ़ता है वहां भय,डर कम होता जाता है। फिर जब विश्वास,प्रेम बढ़ता है तो लोग आपके साथ होकर नया- नया करने के लिए सोचते है, प्रेरित होते है। दुसरो को डराना धमकाना वैसे भी अच्छी बात नही होती है।

गुरुजी बच्चा चाहे कितना ही पढ़-लिख जाए पर उसने जीवन में आई बाधाओं से, संघर्षों से मुकाबला करना नही सीखा तो उसकी शिक्षा किसी भी काम की नही रह जाती है। क्योंकि उसके भावी जीवन में कई प्रकार की चुनौतियां, परेशानियां आने वाली है जिनका लगभग सभी को सामना करना पड़ता है।
अगर उसने इन मुसीबतों से मुंह मोड़ लिया तो समझो उसकी पढ़ाई लिखाई बेकार है।
बजाय मुंह मोड़ने के वह इनका अपने आत्मबल से, आत्मविश्वास के साथ डटकर मुकाबला करें। कहने का मतलब उसकी *शिक्षा उसका हौंसला बढ़ाने,अपने फैसले स्वयं लेने में सहायता करनी वाली हो*।उसका दिमाग व दिल तार्किक रुप से मजबूत हो।
उसे आपको शिक्षित ही नही दीक्षित भी करना है।क्योंकि हमारे देश में *करोड़ों की संख्या में शिक्षित तो है पर दीक्षित नही है*।
इसलिए हम सब आये दिन देख रहे है। बड़े-बड़े अपराध, चोरी, बलात्कार व सायबर ठगी जैसे जघन्य कृत्य पढ़े-लिखे लोग ही ज्यादा कर रहे है।
इसलिए आपको उसे जीवनोपयोगी शिक्षा देकर संस्कारवान बनाना है। वह विनम्र हो, उसमें मानवता और व्यावहारिकता हो।


बातें छोटी छोटी है पर मैं इनको बहुत जरूरी मानता हूं। जैसे अभिवादन के बजाय, वह सब के चरण-स्पर्श करे।
क्योंकि अभिवादन मे वह सम्मान नहीं है जो चरण-स्पर्श में है।
विद्यालय में उसको नया सीखने के लिए भेजा है। कहीं ऐसा नही हो जाए कि वह पुराने को भी भूल जाए। जैसे बड़ों का सम्मान करना, छोटों को प्यार करना, मां- बाप की सेवा करना, गरीब, असहाय की सहायता करना आदि। आधुनिकता के नाम पर वह मां को मोम,पिता को डेड,बोलने लग जाए।
अपने आपको दुसरों से ऊंचा समझने लग जाए। हांलांकि मैं यह भी जानता हूं। इन सब बातों के लिए आपको ही नही मेरे को, परिवार को, व पुरे समाज को भी आपका साथ देना पड़ेगा।
आपके साथ हम भी कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग करेगे। *पर फिर भी मेरी इन सब बातों के लिए आपसे अपेक्षा है क्योंकि आप उसके हीरो है*।
साथ ही मेरा मानना है कि दुनिया में हर प्राणी अपने आपमें अलग और अद्भुत होता है, कोई किसी से कम नही है। इसलिए आप उसे वही रहने दे, जो वह है। उसे दुसरों जैसा बनाने का प्रयास नही करे।उसकी रूचियों, जिज्ञासाओं के अनुरुप ही उसे आगे बढ़ने के ज्यादा से ज्यादा अवसर व मौके आपको देना है।
सच्ची शिक्षा सोचना है, सूचना नही। *शिक्षा से समझ बड़े, रटना घटे*। इसी महामंत्र को आपको याद रखना है।
अंत में आपको मैं पुनः प्रणाम करता हूं।
साथ ही मेरे से जो भी आप सहयोग चाहते है।उसके लिए मैं हमेशा आपके हुक्म का तामिलदार रहूंगा।
        















       हंसराज हंस                   
      राजस्थान

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