गुरु की प्रतिमा


सदियों से हम सुनते आए,
 गुरु महिमा गुणगान ।
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु ,
गुरु गुणों की खान ।।
मगर एक शिष्य ने गुरु का ,
मान बढाया था  ।
तन से मन से जिसने गुरु को  ,
शीश नवाया था ।।
भील बालक था विद्या अभिलाषी ,
दिल मे इच्छा फ़ली थी ।
शिक्षा पाना गुरु द्रोण से , 
ऐसी ज्योत जली थी ।।
ले याचना पहुचा सन्मुख ,
कर वंदन चरणों मे ।
मुझको शिक्षा दे दी गुरुवर ,
कुछ बन जाऊ मैं ।।
जैसी दोगे आज्ञा मुझको ,
 तत्क्षण पूरी उसे करूंगा ।
सच्चा आज्ञा पालक बनकर,
नियम अनुशासन धारूँगा ।।
मगर नियति को कुछ ओर था करना,
 ये कैसे हो सकता था ।
जिसको दुनिया पढ़े युगों तक ,
ऐसा अध्याय रचना था ।।
गुरु द्रोण ने कहा एकलव्य , 
मैं अधिकार  नही रखता ।
इसलिए  राज पुत्रो के बीच ,
तुम्हे शिक्षा दे नही सकता ।।
मैं विवश और लाचार हूँ ,
तुम जिद अपनी ये छोड़ो ।
पालो शिक्षा किसी ओर गुरु से ,
उनसे नाता जोड़ो ।
गुरु द्रोण का उत्तर सुनकर ,
एकलव्य को धक्का सा लागा ।
मगर अंतर्मन में उसके , 
साहस फिर से जागा ।
बोला गुरुवर मेरी दृढ़ इच्छा ,
और संकल्प यही है ।
आपसे पाऊ शिक्षा दीक्षा , 
दूजा विकल्प नही है ।
चला वहां से कर गुरु वंदन ,
बैठ पेड़ की छाया ।
लगा बनाने गुरुद्रोण की प्रतिमा,
जैसे जीवित काया ।
 श्रद्धा और विश्वास से प्रतिदिन, 
गुरु का ध्यान लगाकर ।
करने लगा अभ्यास निरन्तर, 
धनुषबाण उठाकर ।
लगा भेदने लक्ष्य बाण से , 
यहाँ वहाँ चहु ओर ।
पास-दूर और आग-पीछे ,
कोई ना छोड़ी ठौर ।
धीरे धीरे साध रहा था ,
 वह असाध्य साधन को ।
भेद दिया था उसने बाणों से ,
पूरे आरण्यक वन को ।
इकदिन घटी घटना अनोखी,
वह साध रहा था निशाना ।
एक स्वान उसे लगा भोकने,
जैसे मार रहा हो ताना ।
उसकी इस तेज ध्वनि से ,
ध्यान भटक रहा था ।
एकलव्य को उसका भोकना,
दिल मे खटक रहा था ।
चला दिए सारे स्वान के मुख में,
 तीर जो तरकस के पड़े थे ।
कतरा खून का एक ना निकला,
तीर करुणा से जड़े थे ।
भोक न पाया फिर दुबारा ,
ऐसा किया कमाल ।
दुम दबाकर भागा वहां से ,
होकर कर बड़ा निढाल ।
देख द्रोण और कौरव पाण्डव,
पड़े अचरज में भारी ।
अर्जुन से बढ़कर कौंन हुआ, 
ऐसा निपुण धनुर धारी ।
खोजते खोजते पहुँच गए सब,
एकलव्य के पास ।
पूछा सभी ने कौन गुरु तुम्हारा,
किसके हो तुम दास ।
तीरबाण की ये अदभुत लीला,
जो तुमने दिखलाई ।
जल्दी बताओ एकलव्य तुमको,
ये कला किसने सिखलाई ।
शीश झुकाकर एकलव्य बोला,
ये आपकी है प्रभुताई ।
आपके ही कृपाप्रसाद से,
धनुर्विद्या है पाई ।
 गुरूवर आपकी प्रतिमा में,
आपका अक्ष नजर आता था ।
मैं प्रतिदिन इस प्रतिमा से ,
आज्ञा - आदेश पाता था ।
जो कुछ सीखा अब तक  मेने,
सब आपका ही है ज्ञान ।
मैं हूँ गुरूवर आपका चेला ,
आप मेरे गुरु महान ।
 भौचक्के रह गये सभी थे ,
सुन एकलव्य की बात ।
खड़े अचंभित सोच रहे थे ,
उंगली दबाए दाँत ।।













संदीप कुमार जैन "नवोदित"
      ( राजस्थान )

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