धड़कते अहसासों का कारवां....बड़ा बेचैन-सा हूॅं मैं....

"बड़ा बेचैन-सा हूॅं मैं" दीपक मेवाती जी के द्वारा लिखित एहसासों का ऐसा कारवां है जिसमें हिंदी अदब की सभी विधाओं को गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, हरियाणवी /मेवाती लोकगीत आदि में बहुत ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया गया है हालांकि इस संग्रह में कवि ने गीत, हास्य व्यंग्य की कविताएं, ग़ज़लें, मन के भाव आदि के रूप में चार भागों में विभक्त किया है ।

दीपक मेवाती जी का व्यक्तित्व और कृतित्व बहुत ही सुलझा हुआ है । साहित्य के क्षेत्र में मेवाती जी अपनी उपस्थिति बहुत पहले दर्ज करवा चुके हैं ये इनकी ......(चौथी) पुस्तक है ।
यह काव्य संग्रह पाठक के जीवन के हर रंग से तालुकात रखता है।
जहां तक मैंने इस पुस्तक की रचनाओं को पढ़ा है और उससे एक जुड़ाव महसूस किया है कि इस संग्रह में सम्मिलित सभी रचनाओं में व्यक्त भावनाएं,आशा, निराशा ,संघर्ष ,खुशी, दुःख, बेबसी, श्रृंगार रस (संयोग - वियोग) तथा वात्सल्य रस आदि की सुगंध जब आम पाठक वर्ग अपनी सांसो के रास्तें से अपने हृदय तक महसूस करते हैं तो उनके मुंह से बरबस ही 'वाह-वाह' निकल जाता है ‌।
मेवाती जी के गीत का नायक जब किसी से बात करता है तो उसकी बात सुनता भी है और सबका मनोरंजन करते हुए हंसाना भी चाहता है । यह कवि की सहृदयता को प्रकट करता है ।
कोई फिर बात तुम करना ,
कोई फिर बात मैं कर दूं ।
मैं फिर बन जाऊंगा जोकर ,
मेरा मकसद हंसाना है ।।

संग्रह का मुख्य गीत 'बड़ा बेचैन-सा हूॅं मैं' में कवि/नायक का जो समर्पण भाव है वो एक तरफा नहीं है
बड़ा बेचैन-सा हूॅं मैं ,
बड़ी बेताब तुम भी हो ।
अगर हूॅं खास मैं तेरा, 
तो मेरा राज तुम भी हो ।।

तकनीकी के इस दौर में फोन भी खत की भूमिका बखूबी निभा रहा है ‌। एक समय था जब नायक नायिका एक दूसरे के पत्र का बेसब्री से इंतजार किया करते थे । वो दिन अब तकनीकी ने बदल दिए हैं, देखिए इस गीत की बानगी__
१.
उसका मिलना भी कोई जरूरी नहीं ,
वो एक फोन कर दे तो क्या बात है !
२.
तेरी डीपी को हरदम निहारा करूं ।
तेरा स्टेट्स भी बिन देखे मैं ना रहूं‌।।
हरियाणवी मेवाती माटी की सोंधी महक भी संग्रह को महका रही है । लोक गीतों की रंगत जिस प्रकार झूमने पर मजबूर कर देती है उसी प्रकार यह देसी अंदाज भी आप को झूमने पर मजबूर कर देता है ।
घणा दिना में आज हुई है 
मेरी वासु बात हुई है ।
दूर उ बैठी है मोसू पर 
बातन में उ साथ हुई है ।।
बहु मेरी सूथरी हो ,
पहनी उसने कुड़ती हो ।
जुल्फ उसकी उड़ती हो ,
भांडी उसकी मुड़ती हो ।।

श्रृंगार रस के मुख्य अलंकार अनुप्रास की छटा तो देखते ही बनती है । हर गीत को गाने का मन करता है, स्वत: ही एक गेयात्मकता की लय बन जाती है और पाठक गुनगुनाने लगता है....
१.
हर बात हर जिक्र में तू है ।
हर तड़प हर फिक्र में तू है ।।
कुछ उलूल-जुलूल-फिजूल-सा है ,
कुछ बीती कोई भूल-सा है ।
कुछ जीत में है एक बाधा-सा ,
कुछ है मजबूत इरादा-सा ।।
कुछ मन का है कुछ मन में है ।
कुछ बेमन-सा भी मन में है...

समसामयिक मुद्दे को छूते समय कवि का कोमल हृदय भी  साधारण किसान की पीड़ा पर आक्रोश व्यक्त करता है और उसकी अभिव्यक्ति कुछ इस तरह से करता है...
किसी का हो जाना ही, काफी नहीं है अब,
मैं तो उसका हूॅं , पर वो मेरा नहीं है अब ।
किस कदर बदला है, फितरत को उसने, 
धरा पर किसान होना ही काफी नहीं है अब ।।

समय के साथ-साथ साहित्य की पद्य विधा में पिछले कई वर्षों से कई नए-नए प्रयोग होते रहे हैं , लघुकथा की तरह ही लघु कविता का रूप भी सामने आया है । जिस प्रकार ग़ज़ल में छोटी बहर की ग़ज़ल का बड़ा महत्व होता है ।
उसी प्रकार से लघुकविता भी अपने विशेष स्वरूप के साथ सामने आई है...
वो थी 
सब था 
वो नहीं 
कुछ नहीं 
याद थी 
बात थी 
अब नहीं 
कुछ नहीं..

कवि की विशेषता यह भी रही है कि कवि ने अपने मन की बात कहने के लिए अन्य पुरुष का सहारा नहीं लिया है बल्कि अपनी बात प्रथम पुरुष 'मैं' सर्वनाम में ही सहजता से व्यक्त कर गया है , इंसान के बदलते मनका कुछ इस तरह से वर्णन किया है...
मन मेरा भी उजला है ,
और मन मेरा भी काला है ।
कभी हाथ में दूध है मेरे ,
कभी हाथ में हाला है ।।

अक्सर कहा जाता है कि हमारा भारत गांवों में बसता है ।गांव शहर की बनिस्बत अच्छा होता है ‌। परंतु गांव में आज भी परंपरा के नाम पर भेदभाव, कुरीतियां या दो मोहब्बत करने वालों को सजाएं दी जाती है । बात-बात पर खाप बिठाई जाती है शायद इसी को मद्देनजर रखकर के कवि के मन में यह भाव उठे होंगे..
गांव बहुत अच्छा है ,
लेकिन मेरे लिए नहीं ।
घुट-घुट कर मैं जीता हूॅं ,
मरता, लेकिन कभी नहीं ।।

कवि ने रिश्तों की कच्चे धागे से बुनी हुई भावनात्मक चादर में माता, पिता, बेटी, दोस्त तथा साथ ही अपने बचपन का चित्रण भी इस प्रकार से उकेरा है कि जैसे कुशल चितेरा जीवन रूपी तस्वीर में विभिन्न रंग भर देता है । वात्सल्य रस से सराबोर रचनाएं हृदय को झंकृत करती है ।
मां की ममता और पिता का प्यार व आशीर्वाद जिसके साथ हो वो गगन को भी छू सकता है...
भूलूं चाहे कुछ भी मैं ,
तुमको न माॅं मैं भूलूंगा ।
तेरे ही करम से ए मेरी मां ,
धरती से गगन को छू लूंगा ।।
और पिता के प्रति भाव उस बात को चरितार्थ करते हैं कि एक पुत्र पिता का ही प्रतिबिंब होता है..
मेरे जर्रे-जर्रे में आप हो 
मैं जो करता हूॅं, ऐसा लगता है । 
सब कुछ तो आप जैसा ही है, 
आपकी बदौलत ही है वजूद मेरा ।।
बेटियां घर की रौनक होती है माता पिता के लिए अनमोल होती है..
सारी खुशी त्योहार सारे तुमसे ही घर में ,
रौनक सभी बहार सारी तुम से ही घर में ।
घर में मेरे हो चांदनी और रोशनी हो तुम ,
बेटी है तो सब रीत है संस्कार है घर में ।
बचपन का वर्णन कवि बड़े ही तुलनात्मक ढंग से करता है स्वयं के बचपन के दिनों में तो बिल्ली से डरता है भूत के किस्सों से डरता है । परंतु 'उनका बचपन' उन बच्चों का बचपन सड़क किनारे कचरा बीनते , भीख मांगते हुए बचपन को देखता है तो व्यथित होता है । कवि हृदय अति संवेदनशील होता है ।

हरियाणा की पृष्ठभूमि ऐसी है कि गर्मी के दिनों में खूब 'लू' चलती है । प्रकृति के इस विहंगम बिंब को कवि ने कुछ ऐसे उभारा है.. 
गरम लू चल रही थी ,
जिससे भू जल रही थी ।

इतने सुंदर गीतों के साथ-साथ कवि ने सभी के मनोरंजन के लिए हास्य व्यंग्य से पगी हुई रचनाएं भी प्रस्तुत की है ।'गधे की लात' कविता हास्य के साथ-साथ व्यंग्य भी है । हंसी के साथ-साथ वास्तविकता से रू-ब-रू करवाते रचनाकर्म में ठेठ हरियाणवी के शब्दों का संयोजन देखते ही बनता है ।
मेवाती जी की ग़ज़लों की बात करें तो मेवाती जी बहुत ही संतुलित और संयमित लहज़े में बात रखने में माहिर है..
मैं खुद को बदलूं तो किसके लिए 'मेवाती',
सबके चेहरे पर लिपटे दोहरे नकाब से डर लगता है ।
यूं तो डर से ही होता है,हर काम जमाने में ,
लिख दूं बहुत कुछ पर अपनी औकात से डर लगता है ।।

'मन के भाव' के रूप में कवि ने अपने मन के भावों को बहुत कम शब्दों में मोतियों की सुंदर लड़ी की तरह पिरोया है । आत्मविश्वास और उम्मीद से लबरेज कवि कभी नाउम्मीद नहीं होता है...
रात के बाद भौर की आस न छोड़ ,
विश्वास रख खुद पर विश्वास न तोड़ ।
इतिहास गवाह है वक्त बदलता है ,
बस वक्त बदलने का इंतजार ना छोड़ ।।

दीपक मेवाती जी ने अपनी भूमिका में एक बहुत बड़ी सच्चाई व्यक्त कर दी है कि जो मन में आया वह लिखा, जो मन को अच्छा लगा वह लिखा, जो मन को बुरा लगा वह भी लिखा, उनकी यही शैली, सोच विचार, शब्द शिल्प ,अंदाज ए बयां पाठक को सोचने और दाद देने को विवश कर देती है ‌। एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद लगातार पढ़ने की इच्छा बनी रहती है । नि:संदेह पाठक इस संग्रह को बार बार पढ़ना चाहेंगे इस संग्रह को पढ़ना एहसासों के धड़कते महकते कारवां के साथ जिंदगी के विविध रंगों के साथ सफर करने जैसा है ‌। संग्रह न केवल पठनीय है बल्कि संग्रहणीय भी है । मैं भाई दीपक मेवाती जी को इस संग्रह के प्रकाशन की हार्दिक बधाई और आपके उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं प्रेषित करता हूॅं कि आप इसी प्रकार से साहित्य के क्षेत्र पर अपना सशक्त हस्ताक्षर करते रहें।

              श्याम निर्मोही
             राजस्थान 

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