....निबंध....

"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय के सूल"।।

आज भी हजारों वर्ष पुरानी भाषा(हिंदी)की लोकप्रियता में संदेह नहीं है,लगभग43.63 प्रतिशत भारतीय वर्तमान काल में भी हिंदी में एवं हिंदी का पठन-पाठन कर रहे हैं।
विदेशों में भी इसकी लोकप्रियता कम नहीं है चीन की मंदारिन एवं अंग्रेजी के पश्चात सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी ही है।हिंदी के सामान सहज एवं भावों से परिपूर्ण कोई अन्य भाषा नहीं है। इस भाषा में रचित ग्रंथ उसी प्रकार है जैसे फूलो के भीतर पराग।

आधुनिक दौर में अंग्रेजी सभ्यता का फैलता स्वरूप हिंदी के रास्ते में अवरोध बनता जा रहा है। जबकि हिंदी भाषी क्षेत्र में हिंदी का वैसा ही विस्तार होना चाहिए जैसा वर्तमान समय में अतिरिक्त भाषाओं का है। हम कितने मनीषी, बुद्धिजीवी हैं बोलना सीखते हैं हिंदी से और महत्व उस भाषा को देते हैं जिसका हमसे तो क्या? हमारी जड़ों से दूर-दूर तक नाता नहीं है। इस बुद्धजीविता पर लोग गर्वित भी होते हैं। घर के चीजों की अवहेलना करके बाहरी चीजों का समादर करना अपने कुटुंब में अराजकता फैलाने जैसा है। 

भारत पर अनेक राजनैतिक व सांस्कृतिक अतिक्रमण हुए इसके बावजूद भी मध्ययुगीन काव्य की रचना हुई।इन्होंने अपनी भाषा एवं सभ्यता का ऐसा फ़रेब रचा जिससे आज तक मुक्ति नहीं मिली,और एक हम है अपनी सभ्यता संस्कृति से अजनबियत दिखा रहे है।व्यक्ति जिसे अपना प्रतिमान माने उससे कुछ सीखें भी।राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने गोरो के एक साक्षात्कार में कहा था-हमारी स्वाधीनता तभी सुनिश्चित होगी जब अंग्रेजों के साथ-साथ अंग्रेजी का भी परित्याग कर दिया जाएगा,अन्यथा शारीरिक रूप से स्वतंत्र होते हुए भी मानसिक परवशता का क्लेष भोगना पड़ेगा,जिसे भोग भी रहे हैं।
"हिंदी का प्रश्न
स्वराज्य का प्रश्न है"

"21 वीं सदी में हिंदी"यह विषय ही अपने आप में बेहद: व्यापक है इस पर जितना चिंतन मनन किया जाए कम ही
लगता है।हम उस दौर में खड़े हैं जहां विज्ञान के क्षेत्र में,उद्योग के क्षेत्र में,प्रद्यौगिकी के क्षेत्र में,शिक्षा के क्षेत्र में यहां तक कि निजी जीवन में भी अंग्रेजी का आधिपत्य बरकरार है जो की हिंदी भाषियों के लिए बेहद लज्जा की बात है।ऐसी स्थित में हिंदी की स्थिति को उपयुक्त नहीं कह सकते।आज पॉप, संगीत,नृत्य वाली जीवनशैली की धूम है।शहरों और हाईवे पर पिज़्ज़ा हट केएपसी की श्रृंखलाएं हैं।जिसमें युवाओं का उभरती पीढ़ियों का चेहरा परिलक्षित होता है।वह मॉल आदि के जितने दीवाने हैं उससे अधिक जमाने से बेपरवाह।इसके अतिरिक्त पॉप राजनीति हैं।यह सभी वैश्वीकरण की नवीन सभ्यता के पाठशाले हैं।जिसके सूक्ष्म से सूक्ष्मतर कणों में परदेशी भाषा (अंग्रजी) चमकती आभा के साथ मंचासीन है।

मैथिलीशरण गुप्त के भाई कवि सियारामशरण गुप्त ने अपने लेख (अन्य भाषा से मोह)में लिखा था-"यह बात गलत है कि प्लासी की लड़ाई में थोड़े से गोरो ने हिंदुस्तान जीता।उस रोज उनकी जीत अवश्य हुई थी परंतु वह जीत हिंदुस्तान की पराजय नहीं थी।जिस दिन जिस जगह निश्चित रूप से हमारी हार हुई इसका उल्लेख स्कूल के इतिहास में नहीं मिलता।इतिहास की यह बहुत बड़ी घटना ब्राहा क्षेत्र में घटित ही नहीं हुई। इसका मुख्य क्षेत्र हमारा मस्तिष्क और हृदय था.. हमारे इस अभ्यांतर की विजय विजेता की भाषा द्वारा ही संभव थी।(झूठ-सच )आज ऐसा लगता है कि इस किस्म की बौद्धिक पराजय,गुलामी या आत्मा विसर्जन लज्जा का नहीं गौरव का मामला है"।यह सभी तथ्य एक ही तरफ इशारा करते हैं भारतीय भाषा का असमय बूढ़ी हो जाना।

विकास की बात करते हैं विकसित होने की बात करते हैं आखिर किस आधार पर?किसी भी विकसित एवं विकासशील राष्ट्र के पीछे उसकी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय भाषा का अहम योगदान है।

"उन्नति पूरी है तबहिं, जब घर उन्नति होय ।
निज शरीर उन्नति किये, राहत मूढ़ सब कोय"।।

विकासशील से विकसित होने का ख्वाब हम तभी देखने के अधिकारी हैं जब अपनी राष्ट्रीय भाषा एवं क्षेत्रीय भाषा के संवर्धन हेतु चिंतन-मनन करें।

हिंदी के बेटे बेटियों ने लोगों के अंतरपट में अपनी माँ तुल्य भाषा के प्रति वह चित्र अंकित किया है जो अनंत काल तक प्राचीन नहीं होगा।उन महान विभूतियों से क्यों सीखने का समझने का प्रयत्न नहीं करते?क्यों परदेशी भाषा से दिल्लगी हेतु बेचैन हैं।"जरा सोचिए-विचारिए जिस पौधे ने फूलनें-फलनें का अवसर दिया उसी की जड़ों को तार-तार कर रहे हैं जो कि हमारी सभ्यता संस्कृति के बिल्कुल प्रतिकूल है"।

"हिंदी है हम सब का गौरव
शब्द शब्द है इसका कलरव"

ऐसा कहना भी गलत होगा-हिंदी एकाकीपन का जीवन जी रही है।एक तरफ जहां अंग्रेजी की दादागिरी है वही हिंदी के शोध संस्थान,अनुसंधान पाठशाले भी कम नहीं है,यह सभी हिंदी की जर्जरता, क्षीणता अथक अनवरत प्रयास से दूर करने में प्रयत्नशील है।शिक्षा एवं राजनीति में हिंदी की जरूरत बड़ी है हिंदी प्रतिष्ठा और नए-नए रोजगार दे रही है हिंदीतर राज्यों एवं विदेशों में हिंदी सीखने की उत्सुकता बढ़ रही है।भारतीय नई शिक्षा नीति में भी मातृभाषा को प्राथमिकता दी गई है।यह सरकार द्वारा उठाया गया ऐतिहासिक एवं प्रशंसनीय कदम है।बस जरूरत है तकनीकी क्षेत्र में हिंदी के पदार्पण की। जो की कुछ जगहों पर हो भी चुका है।

इसमें भ्रम नहीं कि शिक्षा के बाजारीकरण में भारतीय भाषाएं जीर्ण-शीर्ण हो गई है।फिर भी हिंदी में ऐसे अनुसंधान कार्य होने चाहिए जो नवीन तथ्यों को प्रकाश में लाए भाषा और साहित्य के समझ में इजाफा करें,हिंदी शिक्षण को समृद्ध करें और राष्ट्र के विकास में काम आए। 
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भाषा को हल्के-फुल्के ढंग से लेना गलत है। निज के विकास हेतु,राष्ट्र के विकास हेतु निज भाषा का संकुचित नहीं विस्तृत प्रभाव होना चाहिए क्योंकि जातीय भाषा हमें अपनी जड़ों से जोड़ती है।इस उत्थान के लिए किसी एक को नहीं सभी को प्रयासरत होना पड़ेगा। क्योंकि सबका साथ सबका विकास ही हिंदी को समृद्ध बनाने की क्षमता रखता है।

"भारत में सब भिन्न अति,ताहीं सो उत्पात।
विविध देश मतहू विविध,भाषा विविध लखात"।। 

उधार की भाषा का परित्याग कर निज की भाषा में सांस लेना ही वास्तविक राष्ट्रप्रेम एवं भाषा प्रेम है।

सुधांशु पांडे"निराला"
      प्रयागराज 

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