प्राचीन भारत में सामाजिक समरसता
प्राचीन भारत में सामाजिक समरसता

वेद का कथन है-

" हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं"- 

अर्थात सत्य का जो मुख  है वह सोने के पात्र से ढका हुआ है जिसकी वजह से हमारी आंखें चुंधिया गई है और हम सत्य  का अवलोकन करने में असमर्थ है ।एक बात तो तय है कि ऋषि, मुनि या विद्वान लोग कभी भी सीधे-सीधे अपनी बात नहीं कहते हैं। वे तो मात्र संकेतों के माध्यम से ही अपनी बात कहते हैं ।यहां सोने के  पात्र से मात्र तात्पर्य उन बातों से है जो हमें सहजता से दिग्भ्रमित कर देती है और हम सत्य से विमुख होकर असत्य की ओर उन्मुख हो जाते हैं। यह आडंबर, पाखंड और ढोंग हमारी पार्थिव आंखों को इतना भाने लगता है कि हम इन्हीं को सत्य मान बैठते हैं और सत्य के अन्वेषण की प्रक्रिया यही अवरुद्ध हो जाती है। 

 

यह बात आजकल हमारी सनातन सामाजिक व्यवस्था पर काफी हद तक लागू हो रही है। जिस प्रकार प्रजातंत्र के सर्वमान्य चार स्तंभ है ठीक उसी प्रकार पूरा संसार यह मान चुका है कि किसी भी समाज की चार  मौलिक आवश्यकताएं हैं ।पहली आवश्यकता -पठन-पाठन, अध्ययन- अध्यापन ,और दूसरी आवश्यकता सुरक्षा व्यवस्था, सीमाओं की सुरक्षा ।तीसरी आवश्यकता आपूर्ति तथा चौथी आवश्यकता स्वच्छता और इन मौलिक आवश्यकताओं से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है। इन्हीं चार मूलभूत आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए समाज को चार वर्गों में बांटा गया था। इसमें ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है जिसके प्रति हम उदासीन रह सकते हैं ।बहुत ही सम्यक और सरल विभाजन लेकिन समस्या यही प्रारंभ हो गई ।कतिपय  पूर्वाग्रह ग्रस्त विद्वानों   ने जानबूझकर इस श्लोक की ऐसी व्याख्या देनी शुरू कर दी जिससे समाज में भेद पैदा हो गए।

 

 आजकल समाज में तेंतीस करोड़ देवताओं का प्रचलन जोर शोर से है। इसमें सबसे दुखद पहलू यह है कि इसकी जानबूझकर अशुद्ध व्याख्या सनातन धर्म के शत्रुओं दी और उसे आज के मूर्ख हिंदू सत्य मानकर चल रहे हैं ।न जाने कितने ऐसे अनपढ़ मूर्ख ब्राह्मण भी है जो धार्मिक अनुष्ठानों में तेंतीस करोड़ देवताओं की पूजा करवाने में लगे हुए हैं।अफसोस हमारे बीच में ऐसे भी पुरोहित और पुजारी है जिन्हें वेद की एक ऋचा भी अच्छे से नहीं पता है। उन्हें तो बस पैतृक के व्यवसाय के तौर पर जो कथा पुस्तकें मिली है उन्ही से ही वे मूर्ख हिंदुओं को उल्लू बना कर अपना काम चला रहे हैं।

जैसे संसार की अन्य भाषाओं के साथ है संस्कृत में भी कई अनेकार्थी शब्द है ।कोटि का अर्थ करोड़ भी होता है और प्रकार भी होता है ।लेकिन यहां प्रकार ना लेकर करोड़ को ले लिया गया जो शायद ज्यादा सरल है। ठीक उसी प्रकार 

"ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् "

मात्र प्रतीकात्मक है ।हम सब जानते हैं कि हमारे शरीर में मस्तिष्क ,भुजाओं उदर और पैर का  क्या महत्व है ।मस्तिष्क का काम है चिंतन करना इसलिए समाज में रहकर जो वर्ग पठन-पाठन का कार्य कर रहा है  उसके बारे में कहा गया है कि वह ब्रह्मा के मुख या मस्तिक से उत्पन्न हुआ है ।यह मात्र प्रतीकात्मक है ।अगर ऐसा मान लिया जाए कि अमुक व्यक्ति या वर्ग ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुआ है तो मुझे पूर्णतया अवैज्ञानिक समझ में आता है। साथ ही जो लोग मनुस्मृति का हवाला देते हुए मनु को समाज का विभाजक मानते हैं ,वे लोग इस बात से शायद अनभिज्ञ हैं कि वह तो इस बात की उद्घोषणा भी करते हैं-

 "जन्मना जायते शुद्र संस्कारात् भवेत् द्विज:"।

 अर्थात समाज में वर्ण विभाजन की व्यवस्था जन्म के आधार पर ना होकर कर्म के आधार पर थी ।अर्थात आपके कर्म व संस्कार निर्धारित करेंगे कि आप किस वर्ण में आते हैं।  मनुस्मृति तो यहां तक कहता है कि कर्म के द्वारा एक व्यक्ति एक वर्ण से दूसरे वर्ण में परिवर्तित हो सकता है ।

"शुद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राहमणश्चेति शूद्रताम्।"

 यह व्यवस्था  उस समय तक इस भारतवर्ष में रही जब तक मात्र एक सनातन संस्कृति थी ।जैसे-जैसे ईसा के जन्म से करीब 600 वर्ष पूर्व दूसरे मत मतांतरो का प्रादुर्भाव हुआ और अपने अनुयायियों की संख्या में मात्र वृद्धि करने के लिए उन्होंने सनातन सामाजिक व्यवस्था को अपने हितों को ध्यान में रखते हुए  व्याख्यायित करना प्रारंभ कर दिया और हमारे संगठित समाज में  विखंडन की प्रक्रिया शुरू हो गई। 

अगर एक सम्यक अवलोकन किया जाए तो सनातन व्यवस्था किसी को भी ही हेय दृष्टि से नहीं देखती ।इसके लिए समाज का प्रत्येक वर्ग उपयोगी है ।हमारा तो सूत्र वाक्य ही रहा है-

" संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्"।

 संपूर्ण विश्व को "वसुधैव कुटुंबकम्" का मूल मंत्र देने वाली वैदिक संस्कृति में कोई छोटा या बड़ा है ऐसा सोचना भी पाप है लेकिन मैंने जैसा पहले कहां है कि ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी शताब्दी के आसपास वैदिक संस्कृति में क्षय  के साथ तथा अल्प महत्त्व व प्रभुत्व के मत मतांतरो  के साथ अनेकों   दुर्बलताएं भारतीय समाज में प्रवेश करने लगी।

 मुस्लिम शासन काल में तो यह अपने चरम पर थी जब भारतीय समाज मनीषियों  और विचारकों की दृष्टि से एक शून्य काल था। यही नहीं , यहां-वहां बिखरे हुए एक दो कवियों के अलावा भारतीय सनातन व्यवस्था न केवल चिंतन विहीन बल्कि चेतना शून्य हो गई थी ।इसी का फायदा उठाकर विधर्मियों ने  अनेकों सामाजिक कुरीतियों जैसे- सती प्रथा, पर्दा प्रथा ,लिंगभेद ,जाति प्रथा को भारतीय सनातन व्यवस्था में प्रवेश करा दिया और हमारे समाज को नीचा दिखाने के लिए उनका प्रचार-प्रसार भी हुआ। अंग्रेजी शासन के दौरान तो इसे एक षड्यंत्र के रूप में प्रचारित किया गया ।इसमें संदेह नहीं कि कुछ अपने ही लोग अपने पक्ष में शक्ति संतुलन के उद्देश्य से ऐसे षड्यंत्रों में सहभागी रहे। हमें ऐसे तत्वों को पहचानना होगा ।जैसा कि धर्म की व्याख्या में कहा गया है कि-

" धृति: क्षमा दमोस्तेयम् शौचम् इन्द्रियनिग्रह:

धी: ,विद्या,सत्यमक्रोधो दशमकं धर्म लक्षणम्"

इसमें कहीं भी अस्पृश्यता ,छुआछूत, ऊंच-नीच की भावना कहीं नहीं है। इसके अनुसार धैर्य,दम,अस्तेय, क्षमा, सत्य,शुचिता, इंद्रिय निग्रह ,बुद्धि ,विद्या , और सत्य  धर्म के लक्षण है और संभवत हर सनातनी इनमें से किसी को अपने जीवन में धारण कर लेता है।

हम सभी सनातन संस्कृति के मानने वालों को यह ज्ञात है कि हमारे धर्म प्राण ग्रंथ- रामायण और महाभारत ऐसे महामानव द्वारा लिखे गए हैं जो ब्राह्मण वर्ण से संबंधित नहीं थे। तथाकथित उन्होने अपने पुण्य कर्मों से संसार में वह स्थान प्राप्त किया है जो किसी भी तथाकथित ब्राह्मण को भी प्राप्त नहीं हुआ है। संपूर्ण सनातन समाज ने इन महान ग्रंथों को मनसा वाचा और कर्मणा अपनाया।यह इस बात को सिद्ध करने के लिए प्रर्याप्त है कि प्राचीन काल में किसी भी प्रकार की विद्वेष की भावना नहीं थी; बल्कि यह एक आरोपित अवधारणा है।

हमारी सनातन संस्कृति ने सदैव सामाजिक समरसता को ही प्रश्रय दिया गया है। सनातन संस्कृति के आदर्श जिनमें हम देवत्व के दर्शन करते हैं वे तो सहर्ष शबरी के झूठे बेर और विदुर पत्नी के केले के छिलके खाने में ही परम आनंद का अनुभव करते हैं। और हमें इस संस्कृति पर केवल गर्व है अपितु इस महान देश की अमूल्य धरोहर मानते हैं। हमारी धर्म पुस्तक "गीता" किसी ब्राह्मण के द्वारा नहीं सुनाई गई है बल्कि उसके द्वारा जिसे आज संपूर्ण विश्व श्रद्धा के वशीभूत होकर गोपाल या ग्वाला कहते हैं। सामाजिक समरसता का इससे बेहतर उदाहरण भला कहीं और कहीं मिलेगा? शायद नहीं।

 


आदित्य विक्रम श्रीवास्तव" सनातनी"

राष्ट्रवादी लेखक संघ


 



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