21वीं सदी व्यंग्य के लिए वरदान बन कर आई है।इस सदी में व्यंग्य हाशिए से निकल कर साहित्य की मुख्य धारा में शुमार हो गया हैव्यंग्य की लोकप्रियता में जबर्दस्त उछाल आया है।व्यंग्य की इस स्थिति को देखते हुए ही मैंने कुछ समय पूर्व हास्य व्यंग्य की एकलौती मासिक पत्रिका अट्टहास के एक अंक का अतिथि सम्पादन करते हुए लिखा था कि यह व्यंग्य का स्वर्णिम काल है व्यंग्य के उपवन में इस समय फागुन पसरा हुआ है।उसे पतझड़ का कोई खतरा नहीं है स्वर्णकाल इसलिए भी कि इस समय जितने व्यंग्यकार सक्रिय हैं उतने एक साथ कभी नहीं रहे।आज से बीस-पच्चीस साल पहले सक्रिय व्यंग्यकारों को अँगुलियों पर गिन सकते थे पर आज नाम लिखने बैठेंगे तो संख्या पाँच सौ से ऊपर पहुँच जाएगी और कुछ नाम छूट जाने की आशंका फिर भी बनी रहेगी। स्वर्णकाल होने के पक्ष में दूसरा तर्क यह है कि इस सदी के इक्कीस सालों में जितने व्यंग्य संग्रह आए हैं उतने तो समग्र रूप में पिछली पूरी सदी में नहीं आए होंगे।तीसरा महत्त्वपूर्ण कारण अखबारों में व्यंग्य की स्वीकार्यता का बढ़ना है।आज हर प्रमुख अखबार हर दिन व्यंग्य प्रकाशित करता है। कुछ अखबारों के पास सीमित स्पेस है - 300 से 500 शब्दों तक तो कुछ अखबार इस सीमा से परे जाकर बड़े व्यंग्य भी प्रकाशित करते हैं।इसके साथ ही साहित्यक पत्रिकाएँ भी समय-समय पर व्यंग्य विशेषांक प्रकाशित कर व्यंग्य की लोकप्रियता को अनुमोदित करती हैं। चौथा ई-मेल की द्रुतगामी पोस्टल सेवा ने तुरत-फुरत प्रकाशन की सुविधा मुहैया करा कर भी व्यंग्यकारों की संख्या में इजाफा किया है। पाँचवाँ महत्वपूर्ण तथ्य है - ब्लॉगिंग की सुलभता, ई-पत्रिकाओं की बढ़ती लोकप्रियता और सोशल मीडिया पर स्व-प्रकाशन की सुविधा।
स्वर्ण काल के जितने उजले पक्ष हैं उतने खतरे भी हैं। जब किसी चीज़ का स्वर्णकाल आता है तो अपने साथ अनेक तरह की विसंगतियाँ भी लाता है । व्यंग्य आज जितनी प्रचुरता में लिखा जा रहा है तो यह प्रश्न बहुत स्वाभाविक रूप से ज़ेहन में उठता है कि क्या उसमें से अधिकांश व्यंग्य, व्यंग्य की मानक कसौटियों पर सचमुच में खरे उतर रहे हैं या केवल संख्या में इज़ाफ़ा कर रहे हैं । इस तारतम्य में जो दूसरा प्रश्न उठता है वह है कि व्यंग्य की मानक कसौटियाँ आखिर हैं क्या!क्या परसाई जी के समय में लिखे गए व्यंग्य को ही व्यंग्य की मानक कसौटी माना जाए ?उसी कसौटी पर ही आज के व्यंग्य को परखते हुए उनकी व्याख्या की जाए या समय के बदलते परिवेश और जरूरतों के हिसाब से व्यंग्य की कसौटियाँ भी परिवर्तन की मांग करती हैं। कुछ समय पूर्व हुए पिलकेंद्र अरोड़ा के व्यंग्य संग्रह 'साहित्य के अब्दुल्ला' के विमोचन समारोह में ज्ञान चतुर्वेदी द्वारा दिए गए आख्यान पर पिछले दिनों एक समूह में बहुत बातें हुईं। ज्ञान चतुर्वेदी पर कुछ लोगों ने परसाई के कद को कमतर करने का आक्षेप लगाया तो कुछ ने परसाई को अप्रासंगिक सिद्ध करने का प्रयास माना।उस समारोह में ज्ञान जी ने कहा था - "आज व्यंग्यकारों के समक्ष चुनौतियाँ बड़ी हैं।व्यंग्य परसाई जी के जमाने के समय का न होकर बदल गया है।आज समय विकट है इसलिए परसाई जी के अस्त्रों से आज नहीं लड़ा जा सकता है। आपको व्यंग्य के लिए नए हथियार खोजने होंगे।" इस वक्तव्य में ऐसा कुछ नहीं था जिस पर विवाद पैदा किया जाता लेकिन विवाद हुआ।समय के साथ बहुत सी बातें बदलती हैं, बदलना मनुष्य का स्वभाव है और इसी स्वभाव के फलस्वरूप नई-नई खोजें होती आई हैं, जीवन शैली में परिवर्तन आते हैं, बेहतर भविष्य के देखे सपने साकार किए जाते हैं | यदि ऐसा नहीं होता तो मनुष्य आज भी आदम युग में जी रहा होता, दूसरे ग्रहों पर जाने की क्षमता ही विकसित नहीं कर पाता। नए हथियार या अस्त्र खोजने से परसाई की अहमियत कहाँ कम होती है। जब भी व्यंग्य की बात होगी उनकी गिनती व्यंग्य के श्लाका-पुरुष के रूप में होती रहेगी। परसाई जी के समय में सोशल मीडिया नहीं था, बाजारवाद हावी नहीं था और न ही इतना ग्लोबल एक्पोजर था, जो आज है। इन विसंगतियों पर लिखने के लिए निश्चित ही कुछ नए प्रकार के अस्त्रों की जरूरत है और इसमें आपत्तिजनक या सिरे से खारिज करने जैसा कुछ भी नहीं है।
आज के व्यंग्य को लेकर, व्यंग्य से सारोकार रखने वाले कुछ लोगों को बहुत संशय है और चिन्ता भी है । आज जो व्यंग्य लिखा जा रहा है उसकी उम्र को लेकर संशय है कि उसके हिस्से में कितनी साँसें हैं । ऐसी कितनी रचनाएँ सामने आ रही हैं जिन्हें बीस-पच्चीस साल बाद भी लोग याद करें । व्यंग्य से प्यार करने वालों की यह चिन्ता जायज है। उनका मानना है कि परसाई, जोशी, ज्ञान व प्रेम की परम्परा को आगे ले जाने वाली कालजयी रचनाओं का सरोवर सूखता जा रहा है । पर वर्तमान परिदृष्य उतना निराशाजनक भी नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में अनेक ऐसी कृतियाँ आई हैं जो व्यंग्य के भविष्य को लेकर आश्वस्त करती हैं।कुछ युवा लेखक भी बहुत अच्छा लिख रहे हैं जिनसे व्यंग्य के सरोवर को सदा लबालब रखने की उम्मीद की जा सकती है।व्यंग्य में महिला लेखकों की सक्रियता भी इस समय देखते बनती है।
पिछले कुछ वर्षों में वर्तमान में सक्रिय अधिकांश व्यंग्यकारों के संग्रह प्रकाशित हुए हैं।खुशी की बात है कि इनमें से कुछ अच्छे-खासे चर्चित भी हुए हैं और पाठकों ने उन्हें हाथों हाथ लिया है। इस सदी में अग्रज पीढ़ी के व्यंग्यकारों के जो व्यंग्य संग्रह आए हैं उनमें से प्रथम दृष्टया जो ध्यान में आ रहे हैं, वे हैं - प्रेतकथा व प्रत्यंचा (ज्ञान चतुर्वेदी), मेरी इक्वावन व्यंग्य रचनाएं, नेता निर्माण उद्योग व हमने खाये तू भी खा (हरि जोशी), आत्मा महाठगिनी, कौन कुटिल खल कामी व शर्म मुझको मगर नहीं आती (प्रेम जन्मेजय), दीनानाथ का हाथ, वीरगढ़ के वीर व निराला की गली में (हरीश नवल), कुरसीपुर का कबीर, फार्म हाउस के लोग, आदमी और गिद्ध व सत्तापुर के नकटे (गोपाल चतुर्वेदी), मानवीय मंत्रालय, मंत्री की बिंदी व डोनाल्ड ट्रम्प की नाक (अरविंद तिवारी), एक वकील की डायरी (संतोष खरे), अध्यात्म का मार्केट (डा शिव शर्मा), चुनाव मैदान में बन्दूकसिंह, मुल्ला तीन प्याजा, बॉस, तुसी ग्रेट हो (सुरेश कांत), हद कर दी आपने, मेरी व्यंग्य कथाएं तथा हँसती हुई कहानियाँ (सुभाष चंदर), बाजार में नंगे (जवाहर चौधरी), गुदड़ी के लाल (सूर्यकांत नागर), बिन सेटिंग सब सून (रमेश सैनी), मेरे भरोसे मत रहना (डॉ रमेश चंद्र खरे) , एक अधूरी प्रेम कहानी का दुखांत, लेकिन जांच जारी है तथा बाबाओं के देश में (कैलाश मण्डलेकर), नवाब साहब का पड़ोस (कुंदन सिंह परिहार), चुगलखोरी का अमृत, चापलूसी का चूर्ण (श्रवण कुमार उर्मलिया), राग लंतरानी (सुशील सिद्धार्थ), आंदोलन की खुजली, नेताजी बाथरूम में व मौसम है सेल्फियाना (गिरीश पंकज), डेमोक्रेसी का भगवान (यज्ञ शर्मा), सत्ता रस (राजेंद्र वर्मा), हे पुरस्कार तुझे नमस्कार, मैं और मेरा छपास रोग तथा श्री घोड़ीवाला का चुनाव अभियान (पूरन सरमा), आस्था के बैगन और पिताजी का डैडी संस्करण (बीएल आच्छा) तथा फ्रेम से बड़ी तस्वीर (अश्विनी दुबे)।
बाद की पीढ़ी के व्यंग्यकारों में जिनका अपना एक पाठक वर्ग है, उनके प्रकाशित व्यंग्य संग्रहों में प्रमुख हैं - लव पर डिस्काउण्ट (आलोक पुराणिक), बेशर्म समय में (डॉ. अतुल चतुर्वेदी), लिफाफे का अर्थशास्त्र, साहित्य के अब्दुल्ला व श्री गूगलाय नम: (पिलकेंद्र अरोडा), मैथी की भाजी और लोकतंत्र (ब्रिजेश कानूनगो), टोपी जिंदाबाद, विषपायी होता आदमी व चांद तुम उदास क्यों हो (सुधीर चौधरी), आपके कर कमलों से (ओम वर्मा), साढ़े तीन मिनट का भाषण
जिन युवा व्यंग्यकारों ने अपने लेखन के बल पर अपना एक मुकम्मल स्थान बनाया है, उनकी प्रकाशित पुस्तकों में प्रमुख हैं - परम श्रद्धेय मैं खुद व बातें बेमतलब (अनुज खरे), लिफ्ट करा दे व सच का सामना (हरीश कुमार सिंह), जोकर जिंदाबाद (शशिकांत सिंह शशि), एक गधे की उदासी (अजय अनुरागी), बस फुंफकारते रहिए (भुवनेश्वर उपाध्याय), तुम कब आओगे अतिथि, आत्मालाप और सेल्फी बसंत के साथ (कमलेश पाण्डे), सूरज की मिस्ड काल (अनूप शुक्ला), भूतपूर्व का भूत व हरपाल सिंह का लोकतंत्र (अरविंद कुमार खेडे), लोकतंत्र की लीला व आल इज वेल (मुकेश जोशी), मंत्रालय में उल्लू (टीकाराम साहू), हम सब फेक हैं (नीरज बधवार), अस मानुष की जात (अनूपमणि त्रिपाठी), खुदा झूठ न लिखवाये, सभी विकल्प खुले हैं, डंके की चोट पर व दो टूक (अलंकार रस्तोगी), नकटों के शहर में (संतोष त्रिवेदी), द' लम्पटगंज (पंकज प्रसून), मुआवज़े का मौसम व अपनी ढपली अपना राग (मुकेश राठौर), गूगल कालीन भारत (विभांशू केशव), हनुमान मुक्त, वागीश सारस्वत तथा साहबनामा (मुकेश नेमा) ।लालित्य ललित इस दौर के एक अति सक्रिय व्यंग्य लेखक हैं ।विलायती राम पाण्डेय उनके व्यंग्य का केंद्रीय पात्र है जिसको केंद्र में रखकर उन्होंने पिछले तीन-चार वर्षों में डेढ़ दर्जन व्यंग्य संग्रह पाठकों को दिए हैं। कुछ उदीयमान युवा रचनाकारों के संग्रह भी इस दौरान प्रकाशित हुए हैं। जिन युवा व्यंग्यकारों ने अपनी रचनाओं से प्रभावित किया है वे हैं - अभिषेक अवस्थी (मृगया), सुरेश मिश्र उरतृप्त (एक तिनका इक्यावन आंखें), अमित शर्मा (लानत की होम डिलेवरी), सुमित प्रताप सिंह (सावधान, पुलिस मंच पर है), सौरभ जैन (डेमोक्रेसी स्वाहा) तथा विनोद कुमार विक्की (मूर्खमेव जयते युगे युगे व बकलोली की पराकाष्ठा)।इनके साथ ही नवीन जैन, मोहन मौर्य, अनिल अयान श्रीवास्तव व ललित शौर्य व्यंग्य के उभरते हुए लेखक हैं। कुछ व्यंग्य संग्रहों और पत्रिकाओं में प्रकाशित इनकी रचनाएँ आश्वस्तकारी लगती हैं।
इनके अतिरिक्त मेरी इक्वावन व्यंग्य रचनाएँ, मेरी प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाएँ, चुनिंदा व्यंग्य, गौरतलब व्यंग्य व बेहतरीन व्यंग्य शीर्षक से अनेक प्रकाशकों द्वारा कई चर्चित व्यंग्यकारों के संग्रह प्रकाशित किए गए हैं। इनमें प्रमुख हैं - नरेंद्र कोहली, रवींद्रनाथ त्यागी, कृष्ण चराटे, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जन्मेजय, हरीश नवल, हरि जोशी, सुभाष चंदर, राजेंद्र सहगल, श्रवण कुमार उर्मलिया, आलोक पुराणिक, गोपाल चतुर्वेदी, हरीश कुमार सिंह, गिरिराज शरण अग्रवाल, रमेश सैनी, प्रभाशंकर उपाध्याय आदि ।राजकमल प्रकाशन द्वारा परसाई और शरद जोशी की पुस्तकों क्रमश: निठल्ले की डायरी एवं वोट ले दरिया में डाल का पुनर्प्रकाशन किया है ।गिरिराज शरण अग्रवाल के सम्पादन में विषय-विशेष व्यंग्य सीरीज प्रकाशित की गईं हैं। जिनके नाम हैं - साहित्यिक परिवेश के व्यंग्य, पारिवारिक जीवन के व्यंग्य, सामाजिक व्यवस्था पर व्यंग्य, मानव चरित्र पर व्यंग्य, न्याय व्यवस्था पर व्यंग्य, पुलिस व्यवस्था पर व्यंग्य, चिकित्सा व्यवस्था पर व्यंग्य तथा राजनीतिक परिवेश पर व्यंग्य। साझा संकलनों के रूप में व्यंग्य बत्तीसी (सं० सुशील सिद्धार्थ), व्यंग्य के नवस्वर (सं० एम एम चंद्रा), मध्यप्रदेश : व्यंग्य प्रदेश (सं० पिलकेंद्र अरोड़ा), व्यंग्यकारों का बचपननामा (सं० सुशील सिद्धार्थ / नीरज शर्मा), मिली भगत (सं० विवेक रंजन श्रीवास्तव), अब तक 75 (ललित लालित्य/हरीश कुमार सिंह), 131 श्रेष्ठ व्यंग्यकार (ललित लालित्य/राजेश कुमार) तथा खरी-खरी (विनोद कुमार विक्की) पाठकों द्वारा काफी सराहे गए।
व्यंग्य को लेकर जो सबसे सुखद स्थिति है वह है महिला व्यंग्यकारों की बढती सक्रियता।काफी समय तक व्यंग्य को महिलाओं के लिए कठिन विधा समझा जाता था लेकिन आज यह तिलिस्म टूट गया है और महिला व्यंग्यकारों की पूरी पलटन व्यंग्य में सक्रिय है। आज से दस-पंद्रह साल पहले महिला व्यंग्यकारों में सूर्यबाला, अलका पाठक और स्नेहलता पाठक ही व्यंग्य की झंडाबरदार थीं लेकिन आज इंद्रजीत कौर, अर्चना चतुर्वेदी, अनीता यादव, समीक्षा तैलंग, विजया तैलंग, साधना बलवटे, मीना अरोड़ा सदाना, वीना सिंह, अंशु प्रधान, शशि पाण्डे, आरिफा एविस, रेणु देवपुरा, नीरजा शर्मा और ममता मेहता के हाथों में व्यंग्य की पताका है। इनमें से जिन महिला व्यंग्यकारों के संग्रह भी हाल के समय में आए हैं, वे हैं - स्नेहलता पाठक (लोनम शरणम गच्छामि, बेला फूले आधी रात, व्यंग्यकार का वसीयतनामा, सच बोले कौआ काटे व एक दीवार सौ अफसाने), इंद्रजीत कौर (पंचरतंत्र की कथाएँ, ईमानदारी का सीजन), वीना सिंह (बेवजह यूँ ही), अर्चना चतुर्वेदी (लेडीज डॉट कॉम व शराफत का टोकरा), रेणु देवपुरा (चक्कर जीरो परसेंट का व सुख अस्वस्थ होने के), अंशु प्रधान (हुक्काम को क्या काम), समीक्षा तैलंग (जीभ अनशन पर है), अनीता यादव (बस इतना सा ख्वाब है), विजया तैलंग (आ गए अच्छे दिन), शशि पाण्डे (चौपट नगरी अंधेर राजा व मेरी व्यंग्य यात्रा), सुनीता शानू (फिर आया मौसम चुनाव का) आरिफा एविस (शिकारी का अधिकार व जाँच जारी है), पल्लवी त्रिवेदी (अंजामे गुलिस्तां क्या होगा), ममता मेहता (व्यंग्य का धोबीपाट) तथा अनिला सिंह (श्रोताओं का अकाल ) | इनके साथ ही जिनके व्यंग्य संग्रह नहीं आए हैं लेकिन अखबारों की दुनिया में काफी सक्रिय हैं, ऐसे व्यंग्यकारों की संख्या भी कम नहीं है। इनमें प्रमुख नाम हैं - अलका अग्रवाल सिग्तिया, स्वाति श्वेता, चंद्रकांता, प्रियंका त्रिपाठी, नेहा नाहटा, रेणु अस्थाना, सुषमा राजनिधि, रश्मि चौधरी, समीक्षा पांडे, आशा सिंह, स्नेहा देव, आदि।
व्यंग्य में लेखकों की भरमार होने के बावजूद आज भी व्यंग्य उपन्यास कम ही लिखे जा रहे हैं।व्यंग्य उपन्यासकारों की कड़ी में ज्ञान चतुर्वेदी, हरि जोशी, सुभाष चंदर, सुरेश कांत, अरविंद तिवारी और गिरीश पंकज ही "राग दरबारी" वाले श्रीलाल शुक्ल और "नेता जी कहिन" वाले मनोहर श्याम जोशी की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं ।इस सूची में हरीश नवल का नाम भी इस साल जुड़ गया है।उनका उपन्यास "बोगी नंबर 203" प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।ज्ञान चतुर्वेदी का कुछ समय पूर्व प्रकाशित "पागलखाना" काफी चर्चित रहा और अनेक बड़े पुरस्कारों से सम्मानित हुआ है। हरि जोशी के तीन व्यंग्य उपन्यास "व्यंग्य के त्रिदेव", "पन्हैयानर्तन" व "तलाक तड़ाक तलाक सड़ाक" पिछले तीन सालों में प्रकाशित हुए हैं। "व्यंग्य के त्रिदेव" उनका सबसे चर्चित एवं विवादास्पद उपन्यास है। अरविंद तिवारी का "शेष अगले अंक में", बालेंदु तिवारी का "मदारीपुर जंक्शन", यशवंत व्यास का "ख्वाब के दो दिन", विष्णु नागर का "आदमी स्वर्ग में", शिव शर्मा का "बजरंगा", महेंद्र ठाकुर का "डिप्टी कमिश्नर की डायरी", गिरीश पंकज का "स्टिंग आपरेशन" व "पालीवुड की अप्सरा", विनोद साव का "भोंगपुर 30 किमी", शशिकांत सिंह शशि का "प्रजातंत्र के प्रेत", आशा रावत का "गुरु दक्षिणा", मलय जैन का "ढाक के तीन पात", पंकज सुबीर का "अकाल में उत्सव", सुरेश कांत का "जॉब बची सो", डॉ सुधीर दीक्षित का "राजा अजबसिंह की प्रेम कहानी", अरविंद कुमार साहू का "कवि बौड़म और समझदार गधा", नुपुर अशोक का "पचहत्तर वाली भिंडी" व कुमार सुरेश का "तंत्रकथा" विशेष चर्चित रहे। मेरा व्यंग्य उपन्यास "पानी का पंचनामा" प्रकाशनाधीन है जिसके इस वर्ष आने की पूरी संभावना है।महिला व्यंग्यकारों में अर्चना चतुर्वेदी के "गली तमाशेवाली" को भी पाठकों का अच्छा प्रतिसाद मिला।
साहित्य की सभी विधाओं की तरह व्यंग्य लेखक का भी तर्कशील, विवेकशील और सामाजिक सारोकार की चेतना से लबरेज होना जरूरी है लेकिन उसकी नजर में वह सूक्ष्मदर्शी तत्त्व होना भी जरूरी है जो विसंगतियों का दिशाबोध करा सके और उनका परिमार्जन, समाज के व्यापक हित में कर सके।इसलिए व्यंग्य आलोचना का काम बड़ा जोखिम भरा और कठिन है।व्यंग्य आलोचना के क्षेत्र में जिन व्यंग्यकार-आलोचकों ने अपनी निर्विवाद पहिचान स्थापित की है उनमें केवल तीन नाम ही जेहन में आते हैं। वे हैं रमेश तिवारी, एम.एम. चंद्रा व राहुल देव।महिलाओं में साधना बलवटे व्यंग्य आलोचना में सक्रिय हैं। रमेश तिवारी ने चुनिंदा व्यंग्य शृंखला के अनेक संग्रहों का सम्पादन किया है। बेहतरीन व्यंग्य सीरीज के अंतर्गत भी वह कुछ और संग्रहों का सम्पादन इन दिनों कर रहे हैं।आलोचना में साधना बलवटे की दो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं - "शरद जोशी, व्यंग्य के आर-पार" तथा "नीर-क्षीर"।दीपक गिरकर और घनश्याम मैथिल अमृत व्यंग्य पुस्तकों के समीक्षक के रूप में अच्छा कार्य कर रहे हैं।
अंत में बात व्यंग्य पत्रिकाओं की। पिछले बीस सालों से अनवरत प्रकाशित हो रही "अट्टहास" हास्य व्यंग्य की एकमात्र मासिक पत्रिका है जिसके सम्पादक अनूप श्रीवास्तव हैं।व्यंग्य के प्रति यह उनका समर्पण और अनुराग ही है जिसके कारण अपने संसाधनों से वह यह पत्रिका निकालते आ रहे हैं। इस पत्रिका को अनेक युवा और नवोदित व्यंग्यकारों का परिचय साहित्य जगत से कराने का श्रेय है। हाल ही में अट्टहास पत्रिका ने ज्ञान चतुर्वेदी और हरीश नवल पर यादगार विशेषांक प्रकाशित किए हैं।अगला अंक प्रेम जन्मेजय पर आ रहा है।दूसरी महत्वपूर्ण पत्रिका "व्यंग्य यात्रा" है जो त्रैमासिक रूप से प्रकाशित होती है | यह पत्रिका अपने धीर-गंभीर विषय चयन और संग्रहणीय सामग्री के कारण विशेष स्थान रखती है। इस पत्रिका के सम्पादक प्रेम जन्मेजय है। जयपुर से नई गुदगुदी भी काफी अर्से से नियमित रूप से प्रकाशित हो रही है।अतुल चतुर्वेदी के सम्पादन में व्यंग्योदय साल में एक बार प्रकाशित होती है लेकिन यह भी व्यंग्य की एक महत्वपूर्ण पत्रिका के रूप में अपनी पहिचान रखती है।जो अखबार प्रतिदिन व्यंग्य को व्यापक स्पेस दे रहे हैं उनमें प्रमुख हैं - जनसंदेश टाइम्स, दैनिक ट्रिब्यून, नई दुनिया, सुबह सवेरे, पूर्वांचल प्रहरी, दैनिक मिलाप, हरिभूमि, दैनिक हिंदुस्तान, जनसत्ता आदि। चर्चित ई-पत्रिकाओं में रचनाकार, प्रतिलिपि, स्टोरी मिरर, हस्ताक्षर, साहित्य सुधा के नाम प्रमुख है, जिनमें व्यंग्य प्रचुरता से प्रकाशित होते है।समय-समय पर अनेक साहित्यिक पत्रिकाएं व्यंग्य-विशेषांक प्रकाशित करती रहती है। लमही, साहित्य कुंज, शोधदिशा, आलोक पर्व, सत्य की मशाल, निभा, स्वैच्छिक दुनिया और साहित्य अमृत के विशेषांक काफी चर्चित रहे हैं।
अरुण अर्णव खरे
भोपाल
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