ग़ज़ल
बाढ़ में डूबे हुए घर नहीं देखे जाते। तर ब तर आज के मंज़र नहीं देखे जाते। सख्त सरकार के तेवर नहीं देखे जाते। सर पे लटके हुए ख़ंजर नहीं देखे जाते। खु़श्क से जाम व सागर नहीं देखे जाते। इतने ग़मगीन से मंज़र नहीं देखे जाते। घर के होते हुए भी लोग पड़े सड़कों पर, काँपते आज वो थर थर नहीं दे…