(पुस्तक समीक्षा) अधरों के बिस्तर पर गान सो गए...

हिन्दी साहित्य की व्यंग्य-वृहत् त्रयी के श्री रवीन्द्रनाथ त्यागी यशस्वी व्यंग्यकार रहे हैं। त्यागी जी व्यंग्य और कविता साथ-साथ लिखते रहे पर यह दुखद ही कहा जाएगा कि आज बहुत कम लोग ही इस तथ्य से परिचित हैं कि त्यागी जी जितने अच्छे व्यंग्यकार थे, उतने ही अच्छे कवि भी थे। उनके जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजेडी शायद यह भी रही कि उनके व्यंग्यकार की लोकप्रियता ने उनके कवि को आगे नहीं आने दिया। यह भी तब हुआ जबकि न केवल उनके समकालीन बल्कि पूर्ववर्ती दिग्गज़ कवियों ने उनकी काव्य प्रतिभा का लोहा माना और मुक्त कंठ से उनकी काव्य-प्रतिभा को सराहा और उसकी प्रशंसा की। हरिशंकर परसाई ने लिखा है-'मैं रवीन्द्रनाथ त्यागी को एक श्रेष्ठ कवि व्यंग्यकार स्वीकार करता हूँ...'।


उनके कविता-संग्रह 'आदिमराग' (1968) के पुरोवाक पर सुमित्रानंदन पन्त लिखते हैं-'सरल मधुर सुन्दर प्रेरणाएं...ऐसा लगता है अपने आप काव्य की भाषा में ढल गई हैं जैसे इधर उधर से चिड़िया उड़कर चहकने लगी हों और उनके गीत स्वर बन गए हों...'। उपेन्द्रनाथ अश्क जी के शब्दों में-'पिछले कुछ वर्षों से नयी कविताओं के संग्रह में प्रबुद्ध आलोचकों को व्यक्तित्वहीनता का जो दोष दिखाई दिया है, वह उन्हें इस संग्रह की कविताओं में दिखाई नहीं देगा'। प्रभाकर माचवे जी लिखते हैं-'रवीन्द्रनाथ त्यागी की कविताओं की ताज़गी ने मुझे आकृष्ट किया। एकदम नए बिम्ब और इमेज़ पैटर्न्स। ऐसा लगता है कि एक कलाकार ने जीवन को उत्कटता से अनुभव किया है, सर्वेन्द्रियों से वह जीवन के गहरे प्रवाह में डूबा है...'।


उनके कविता संग्रह 'आखिरकार' (1978) के पुरोवाक में अशोक वाजपेयी जी का मानना था-'रवीन्द्रनाथ त्यागी के पास एक सुथरापन और एक सुघरता है जो कवि-कौशल के ऐसे तत्त्व हैं जिनका पिछले दिनों और अवमूल्यन हुआ है। यह संतोष की बात है कि उन्होंने उसका सधा इस्तेमाल कर अपनी कविता को बेवजह अराजक और बिखरी होने से बचाया है। उनकी कविताओं के बारे में यह निसंकोच कहा जा सकता है कि वे सुगठित रचनाएं हैं...', जबकि रघुपति सहाय 'फिराक गोरखपुरी' सहृदयता और स्वतंत्रता को त्यागी जी के कवि के सबसे बड़े गुणों में गिनते थे।


अब इससे अधिक और क्या कहा जाए कि त्यागी जी के कविता संग्रह 'सलीब से नाव तक' (1983) के बारे में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए सुप्रसिद्ध कवि श्री हरिवंशराय बच्चन जी ने उन्हें लिखा था-“अज्ञेय को 'कितनी नावों में कितनी बार' पर एक बार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया है तो 'सलीब से नाव तक' पर कम से कम दो बार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना चाहिए”।


अपने कवि के बारे में खुद त्यागी जी की काव्यपंक्ति है-'जिसने देखा नहीं मेरा कवि, उसने देखी नहीं मेरी सच्ची छवि'। इसके अतिरिक्त वो अपने व्यंग्य लेख 'पूरब खिले पलाश' में लिखते हैं-'मैं काव्य-प्रेमी व्यक्ति हूँ। स्थिति यह कि नित्य लीला से जो कुछ भी समय शेष बचता है, वह काव्य-पाठ को ठीक उसी भाँति दिया जाता है जिस प्रकार विनोबा जी को उर्वर धरती दान में दी जाती रही'। 


हमें अत्यधिक प्रसन्नता है कि हम श्री रवीन्द्रनाथ त्यागी जी की मधुर स्मृतियों को अपने हृदय में संजोकर आज उनकी कविताओं की चर्चा के संग आपसे रू-ब-रू हो रहे हैं। त्यागी जी ने कहीं लिखा है-'मैं कविता तो सीरियस लिखता हूँ और गद्य नॉन-सीरियस'। यह एकदम सच है कि उनके हास्य-व्यंग्य आपको गुदगुदी करते हैं और फ़िर चिकोटी काटते हैं पर कविता में हास्य कहीं नहीं दिखता, वहाँ एक गंभीरता है, एक सीरियसनेस है जो चिंतन के क्षणों में ज़रूरी होती है जो सूक्ष्म निरीक्षण और पैनी पकड़ के साथ व्याप्त विसंगतियों पर तीखा प्रहार करती है। उनकी कविताओं में भी प्रखर व्यंग्य के दर्शन होते हैं। फ़ाइल, अफ़सर, दफ़्तर, कर्मचारी, नेता, समुद्र, मेघ, वर्षा, चाँद, वन, जंगल, पर्वत, पलाश, वसन्त, धूप, पत्नी, कोट, टाई, सूट, रूपवती महिलाएं, आलोचक, सम्पादक, किसानों की लड़कियाँ, धन की फ़सल, ग़रीब बच्चे, कुली आदि कितना ही कुछ उनकी कविताओं में शामिल हैं। सहज, सरल भाषा और सुबह की ओस जैसी ताज़गी लिए, एक अद्भुत शैली में अपने अनुभवों, प्राकृतिक सौन्दर्य और उसका मानवीकरण, कविताओं पर मुग्ध कर देता है। एक बेबसी, बेचैनी, घुटन और पीड़ा/वेदना का अहसास होता है, जिससे वो मुक्त हो जाना चाहते हैं। जीवन के तमाम अंधकारमय हिस्सों को वो प्रकाश में लाने के लिए तत्पर दिखाई देते हैं। ऐसा लगता है कि वो समूची व्यवस्था को बदल देना चाहते हैं। परिवर्तन की इसी चाहत के कारण ही शायद उन्हें वसन्त से बहुत प्रेम है। उनकी कविताएं आम आदमी की पीड़ा, निराशा को अभिव्यक्ति देकर हमारे अंतर्मन पर दस्तक देती हैं और उसके प्रति एक सच्ची सहानुभूति पैदा करती हैं। पढ़ने के बाद अक्सर ऐसा लगता है कि हम कभी ऐसा क्यों नहीं सोच पाए?


त्यागी जी से मिलने का और उन्हें देर तक सुनने का कई बार सौभाग्य मिला। त्यागी जी शांत, शालीन, अनुशासित, व्यवस्थित और संयमित जीवन जीते थे। उनकी चालढाल और रहन-सहन के साथ-साथ उनके बात करने के तरीके में अफ़सर और व्यंग्यकार/कवि स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते थे। अगर मूड सही होता तो खूब बातें करते थे। वो कर्मप्रधान विश्व रुचिराखा के साथ-साथ भाग्य में भी विश्वास रखते थे। उनकी बातों में न जाने कितने ही सुप्रसिद्ध साहित्यकारों के प्रेरक प्रसंग और क़िस्से शामिल होता थे। उनका सेंस ऑफ़ हयूमर ग़ज़ब का था। वो खुले दिल से अन्य लेखकों की तारीफ़ किया करते थे। कालिदास, प्रेमचंद, निराला, शरतचंद्र, पन्त, बच्चन की ख़ूब बातें करते थे। अंग्रेजी लेखकों को भी ख़ूब पढ़ते और सराहते थे। इस सबके बावजूद वो निराला से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने अपनी स्टडी-टेबल पर फ़्रेम में जड़ी निराला की तस्वीर रखी हुई थी। उनकी यह कविता हमें बहुत प्रिय है-'जब मैंने देखे थे निराला और पंत/आज से लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व/मुझे वे बिल्कुल नहीं लगे थे गन्धर्व या किन्नर/....कहाँ छिपी थी उनकी स्वर्ण-छवि/मेरी भाषा के वे अजर और अमर कवि...'। उनकी अनेकों स्मृतियाँ इस वक़्त ज़ेहन में कौंध रही हैं। आज वो सब याद करके बस यही कह सकते हैं कि उनसे मिलना आफ़ताब से मिलना...।


स्थानाभाव के चलते उनकी पूरी कविताएँ दे पाना तो सम्भव नहीं है पर चलिए उनके काव्य की अनुपम छटा की एक झलक ही देख ली जाए, यथा-'जेब कतरों जैसा चौकन्ना मौसम/घुंघरू बाँध नाचती हवाएँ/समुद्र को तट पर छोड़/वापस लौटती अधेड़ सड़कें-/पहिले बनेंगी झील/फिर वोट क्लब और हवाई अड्डा/फिर चमकदार रेस के घोड़े...', 'घास के तिनकों से जूड़ा बाँधे/किसानों की लडकियाँ.../बादाम का जिस्म/आग के खेत/दूध की हवा', 'सामने के फ्लैट पर/जाड़ों की सुबह ने/अलसा कर जूड़ा बाँधा;/नीचे के तल्ले में/मफ़लर से मुँह ढाँप/सुबह ने सिगरेट पी...', 'पलाश जैसी मखमली हँसी हँसती वे युवतियाँ/अपने सख्त चमड़े में जिल्दों जैसे बंधे वे दार्शनिक/वसन्त से सजे वे युवक...', 'बादलों के जाल से/सहसा छूटे/सूर्यास्त के कबूतर', 'सिगरेटदानी में गिरती रही उनके ठहाकों की राख़/लड़कियाँ लजाती रहीं निर्लज्जता के संग...', 'पत्ते इस भाँति झड़ने लगे पेड़ों से/जैसे शब्दों से अर्थ गिरते हैं/वृक्ष हो गए उदास/बिना चूड़ियों के कलाई कोई...', 'फाँसी पर टंग गया आकाश/समुद्र अपने ही भँवर में दूब गया/....पहिले मरा संगीत/फिर मरे प्रेम, यौवन और रूप...', 'न रहे वे तट/न वे समुद्र/न वे पाल/पर एक चीज वही है वही-/मेरा पीछा करता हुआ/बीते दिनों का जहाज़/वह नहीं डूबा', 'आँखों की खिड़की पर/अभी भी लटका है वह बन्दरगाह/उस समुद्र के टुकड़े/जेब में शायद अभी भी हों...', 'पंख कटी बारिश/चाँद का संगमर्मर/लान पर बिछे कहकहे/केक पर चिपके इन्द्रधनुष/पोस्टरों में जलता शाम का शव/बीयर के समुद्र में/स्तनों के तट/नितम्बों की मछलियाँ/कमर के रेलिंग/और इन सबके ऊपर/निरन्तर हँसता कोई उदास...', 'उम्मीदों के हैट में से/कब निकलेगा खुशियों का खरगोश?/ड्रेसिंग गाउन पहिने मेरा भाग्य/क्या बालकनी में इसी तरह/शराब पीता रहेगा?', 'तुम्हारी आवाज़ की गर्मी और हँसी की तुर्श हवा/मौसम की भाँति तुम्हारे ओठों का खुलना/नाव के पाल की तरह तुम्हारी पलकों का उठान-/यह सब मैं शायद नहीं सह सकता...', 'कितनी वर्षा की ऋतुएँ देखि मैंने/पर जब-जब आई वर्षा/वह हमेशा पिछली से अलग थी', 'इस बार जो पतझर आया/वह अन्तिम था/अब मेरे पास टूटने को कुछ नहीं रहा', 'कितनों को भेज चुका काश्मीर/ख़ुद वह कहीं नहीं जा पाया कभी/जीवन बीत गया/जम्मू तवी स्टेशन/कुली नम्बर तिरपन', 'यक्ष से खड़े चीड़ के पेड़/मंथर गति मंदाक्रांता मेघ/इतने दुःख का गीत/कवि तुमने क्यों गाया?'


अपने एक व्यंग्य लेख में त्यागी जी ने लिखा है-'मेरे इस अनायास दु:खी होने का क्या कारण? कहीं वह वसन्त तो नहीं आ गया? वसन्त की ऋतु जहाँ दु:खी होने के लिए प्रसिद्ध है वहाँ काव्य-रचना के सन्दर्भ में इसने काफी नाम पाया है...'। लेकिन यह भी सच है कि त्यागी जी को वसन्त से एक मोह भी है तभी तो जहाज का पंछी जिस प्रकार उड़-उड़कर फिर जहाज पर आ जाता है उसी प्रकार उनकी कविताओं में फ़िर-फ़िर वसन्त आ जाता है। आप स्वयं कुछ दृश्य देख लीजिए-'मुस्कराहटों की मोमबत्ती पर...वसन्त का वह छबीला दिन...', 'सीटी दे देकर युवतियों को बुलाता/सदा का प्रेमी वसन्त...','तुम नहीं देखना वसन्त को इस बार/वह सिर्फ़ मेरे लिए आया है/सिर्फ़ मेरे लिए...', 'रात भर नाचते रहे वे लोग/वर्षा का नाच/युवावस्था का नाच/प्रेम और वसन्त का नाच...', 'इसी वसन्त के नीचे बसी/झुग्गियों में रहते मजदूर/पत्थर तोड़ती युवतियाँ/बतियाती वृद्धाएँ...', 'ओ वसन्त के फूल/ओ पलाश की लाज...मैं हाथ जोड़ता हूँ मुझे छोड़ दो इस बार/तुम्हारा वार झेलने की शक्ति/मुझमें नहीं रही', 'फूलों की सीटियाँ बजाता/वसन्त फिर आ गया.../वसन्त का सच्चा गीत/सिर्फ़ उदासी का गीत/एक दिन तुम भी यही बात मानोगी', 'इसी मोमबत्ती की तरह बुझेंगे हम/केक की तरह एक दूसरे को काटेंगे/आओ, तब तक बटोर लें कुछ और वसन्त...'।


अपनी लेखन प्रक्रिया के बारे में वो लिखते हैं-'मैंने नहीं खोजे शब्द/शब्दों ने मुझे खोजा/मैंने नहीं लिखी कविता/कविता ने मुझे लिखा...' और 'जहाँ कहीं दीखा कोई दुखी/मेरी कलम अपने आप रुकी/जब भी आई वर्षा/मेरा प्राण पुलक-पुलक हर्षा.../तुम कभी नहीं कर सकते बंद/मेरे वर्ण, मेरे प्राण, मेरे छन्द'। एक कविता में लेखन-कर्म से असंतुष्ट हो लिखते हैं-'तुम तो गाते रहे कविता/तुम तो लिखते रहे कथा.../दूसरों का दुःख तुमने ख़ूब भुनाया/ग़रीबों के आँसुओं से बाँध ली कविता/और तुमने किया ही क्या/तुमने सही नहीं कभी सच्ची व्यथा'।


त्यागी जी की खास बात उनकी उन्मुक्तता (गगन को चूमती उन्मुक्त मगर संयमित और संतुलित पतंग के जैसी) और उनका लालित्यपूर्ण लेखन है। उनमें एक अजीब क़िस्म की जिन्दादिली रही और उनका रचना-संसार काफी विविध और व्यापक रहा। वे लेखकों की छपने और प्रचारप्रियता की मारामारी, गुटबाजी और फिरकापरस्ती आदि से सदा अलग ही रहे। उन्होंने बिना कोई समझौता किए, पूरे स्वाभिमान के साथ एक निष्कलंक जीवन जिया। अफ़सरशाही, राजनीति के साथ-साथ ज़िन्दगी के तमाम अन्य विविध स्तरीय अन्तर्विरोध और असंगतियाँ उनके लेखन का विशिष्ट हिस्सा रहीं।


अब हमारे बीच त्यागी जी की स्मृतियाँ ही शेष हैं। उनकी कविताओं पर अभी बहुत काम/शोध होना बाकी है। आशा है लेखक/आलोचक/शिक्षाविद और शोधार्थी उनके 'कवि' के साथ न्याय कर उन्हें वो स्थान दिलाएंगे जिसके वो सच में हक़दार हैं। अंत में, उनकी स्मृति को हम कोटि-कोटि नमन/प्रणाम करते हुए अपनी बात को फैज़ साहब की इन पंक्तियों के साथ विश्राम देंगे-'आख़िर-ए-शब के हमसफ़र/फैज़ न जाने क्या हुए/रह गई किस जगह सबा/सुबह किधर निकल गई'।


 


 


           


डा. सारिका मुकेश


 


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