(पुस्तक समीक्षा) मैं कविता हूँ’


'मैं कविता हूँ'-युगीन पीड़ाओं की सार्थक प्रस्तुति-हरीलाल 'मिलन' कविता की रचनाधर्मिता काव्य की सतत सांस्कृतिक प्रक्रिया है जिसका सीधा सम्बन्ध जन-जीवन से है। जन और जीवन से अलग होकर कविता के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। कविता से ही जन-जीवन का सांस्कृतिक विकास होता आया है। सामाजिक सरोकारों एवं मानवीय मूल्यों की सुरक्षा के लिए सृजन को मर्मस्पर्शी बनाने के लिए कवि या कवयित्री में अनुभूति की ताजगी एवं अभिव्यक्ति की मौलिकता अवश्य होनी चाहिये। 'मैं कविता हूँ' डाॅ. कमलेश शुक्ला 'कीर्ति' की दूसरी काव्य-कृति है। इस कृति में उन्होंने छन्दबद्ध एवं मुक्तछंद की कविताओं को अपनी भाव-सम्पदा से समृद्ध किया है। छन्दबद्ध कविता में लयात्मकता, तुकान्त शब्दावली की ध्वन्यात्मकता, गेयता एवं संगीतात्मकता साधारण रूप में विद्यमान है। कवयित्री अन्तर्मन एवं स्वप्न के दरवाजे को खोलकर कविता लिखती है। प्रेम की पूर्ण पराकाष्ठा के दृष्टान्त बने लैला-मजनू की वेदनाओं को अपनी संवेदनाओं में समाहित करती है। यही संवेदनाएँ 'अश्रु बिगलित शब्द' बनकर कविता का रूप लेती हैं। ये कविताएँ आम बोलचाल में हैं जो राधा के प्रेम, रासो के शब्द और तुलसी की रामायण की भाँति जनसाधारण के हृदय में सहजता से उतर जाती है। हाँ, नारी-जीवन की पीड़ाएँ अभिव्यंजित करती-करती वह उत्तेजित भी हो उठती है- चण्डी बनकर तुम इस जग में, व्यभिचारी का अब अन्त करो।
इसी प्रकार 'नारी है नारी ही समझो' कविता में वह नारी की अन्तर्वेदना के चिन्तन के लिए समाज का ध्यानाकर्षण चाहती है- नारी है नारी ही समझो व्यथित हृदय की पीड़ा समझो करती सत्कर्म स्वजन की खातिर छुपी भावना मन को समझो नारी पर आये दिन हो रहे अत्याचार से वह अत्यन्त छुब्ध है। अपनी कविता 'नर पिशाच' में सहिष्णुता की हर सीमा-रेखा पार कर जाती है। यहाँ शिल्पगत सौन्दर्य साधारण अवश्य पड़ता है किन्तु कथ्य प्रबल होने के कारण पाठक या श्रोता का उस ओर विशेष ध्यान चला जाता है। सकारात्मक सोच की कविताएँ अच्छी बन पड़ी हैं- जकड़ो मत मोह जंजीरों में तुम अपना मन मुक्त होकर अपना स्वाभिमान बचाओ। पथ में हैं काँटे जगह-जगह पर नागफनी से इन काँटों से बचकर पथ सुगम बनाओ। क्षीणता एवं क्षरण कवयित्री को बर्दाश्त नहीं है। निर्धनता, साध् ानहीनता, अशिक्षा, अनैतिकता की लपटों में झुलस रहे जीवन कवियत्री की भावदृष्टि से ओझल नहीं होते। 'सरदार बल्लभ भाई पटेल' पर विरचित कविता में वह सियासत को सचेत करती है। कीर्ति का हृदय वह सागर है जिसमें न जाने कितने बड़वानल समाहित हैं, समय एवं परिस्थिति के अनुसार फूट पड़ते हैं। जी हाँ, यही कवित्व है। यही डाॅकमलेश शुक्ला 'कीर्ति' की कृति 'मैं कविता हूँ' है। कवयित्री समय और समाज के अन्तर्विरोधों, वैयक्तिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विसंगतियों को अपनी इस कृति से दूर नहीं कर पाई, अपनी मुक्त लेखनी निर्भय होकर चलाई है। इससे पूर्व कीर्ति की गीत-गजल की पुस्तक 'खेल धूप-छाँव के' प्रकाशित हुई है जो चर्चित भी हुई है। डाॅमहेशचन्द्र मिश्र 'विधु' के शब्दों में- डाॅ. कमलेश शुक्ला 'कीर्ति' की कवयित्री प्रतिभा हृदय की भाषा में संवेदना के संवेगों को सहजता के साथ अभिव्यक्त करती हैं। अकृत्रिम भाषा, भाव, शैली, हिन्दी काव्य रचना की श्रेणी में दृ
गीत-गजल, लेखन की अनेकानेक मृदु सम्भावनाओं का द्वार खोलती प्रतीत होती है। मेरे विचार से डाॅ. विधु का यह कथन डाॅ. कीर्ति की इस कृति में भी सार्थक सिद्ध हुआ है। परिष्कृति की अपेक्षा रखते हुये भी शब्द-चयन, वाक्य-विन्यास, अर्थ-गाम्भीर्य एवं विम्ब हर दृष्टि से डाॅ. कीर्ति सफल कवयित्री है। त्रासद-स्थितियाँ अछूती नहीं रहतीं, उनके हृदय में चीख है जो कविताओं के माध्यम से बाहर आती है। वे दरवेश की भाँति ही इंसान से इंसानियत निभाने की बात करती हैं- बनों कृष्ण राहों में आओ नारी की तुम लाज बचाओ यहाँ निर्भया सलमा रोई चीख पुकार सुने न कोई इंसान बनों फर्ज निभाओ हैवानियत को दूर भगाओ कविता की वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रतिबद्धता पर अनेक कवि-कवयित्रियों ने अपनी लेखनी चलाई है किन्तु अन्तर्मन को वेधने वाली कविताएँ कम ही प्रकाश में आई हैं। मुक्त छन्दों में भी कवयित्री ने छन्दबद्ध कविताओं की ही भाँति अध्यात्म, भक्ति, सद्व्यवहार, राष्ट्र, सामाजिक समरसता, श्रृंगार, जीवन-मूल्य, जीवन जीने के
;8द्ध सीता रूप में। यह मुक्त-छंद इतिहास का पन्ना-पन्ना खोल डालता है। युग-युग से अधिकार माँगती हुई स्त्री आज भी अधिकार की अधिकारिणी है। इसी कविता के अन्तिम चरण में वह अपना भीतरी अवसाद पूरी तरह समाज के आगे उड़ेल देती है, स्पष्ट शब्दों में, ''मैं वो स्त्री हूँ/सुख की बयार छीनी/कभी भ्रूण नष्ट कर/कभी जन्म देकर/मैं वो स्त्री हूँ/ अधिकार दो/जीने का/जन्म लेने का।'' स्त्री के संघर्ष और सरोकारों को दर्शाता यह मुक्त-छंद नारी की अस्मिता-बोध पर ही आकर विराम पाता है। सच तो यह है- किसी कविता के रचनाकार या रचनाकत्र्री को समझने का अर्थ होता है, उसके समय को समझना। आज के दौर में तमाम रिश्ते बिखरते जा रहे हैं। मनुष्य आदमखोर होता जा रहा है। समकालीन संवेदनाओं को उकेरता 'समाज का आइना' शीर्षक से रचित यह मुक्त छंद देखें- ''स्वार्थ लोलुपता/पखण्डी स्वभाव बन गया/काम लोलुपता/ओह इस कदर ब
्रत्यक्षतः प्रतिबिम्बित करती है। 'कीर्ति' की भाषा सरल, सहज, बोध् ागम्य एवं संप्रेषणीय है। इसीलिए मन-मस्तिष्क पर कविताएँ स्वयं प्रतिष्ठित हो जाती हैं। कविता 'समाज' में कवयित्री ने मानवीय संवादहीनता एवं क्षरित होती संवेदनाओं को पूरी तरह अनावरित कर दिया है। कैसा है समाज? आदिम-युग से वर्तमान तक की विद्रूपताओं की प्रस्तुति में व्यंग्यात्मकता देखें- ''आदिम युग से/वर्तमान तक/ बदलता परिवेश/बदलता समाज/बदलते रिश्ते/जीवन भर लड़ता/ अपनों की खातिर/धोखा देते समीप के रिश्ते/धन की खातिर/रिश्तों का खून बहाते/कभी अपने कभी पराये/कभी नारी का चीरहरण/ कभी कन्या का शीलहरण/बहशीपन, लज्जापूर्ण कृत्य/यही तो समाज है।'' 'कीर्ति' का यह दर्द 'वेश्या' शीर्षक से सृजित कविता में और खुल जाता है- ''वेश्या/जन्म नहीं होता/जन्म से/बहलाकर पुरुष/ले जाते/नर्कद्वार/कुछ रुपयों की लालच में/मिलता अभिशप्त जीवन/ नारी को/न घर में दोबारा प्रवेश/न समाज में इज्जत।'' इसी तरह 'युद्ध' और 'गिद्ध' मुक्त-छंद भी हृदय को झकझोरते हैं। समग्रतः संग्रह की समस्त छन्दबद्ध एवं छन्दमुक्त रचनाएँ परिमार्जन की अपरिहार्यता की अपेक्षा रखती हुई भी संवेदना के धरातल पर खरी उतरती हैं और श्रोता व पाठक को अपने गन्तव्य तक ले जाने में पूर्ण सफल होती है। 'कीर्ति' की निजी, सामाजिक एवं सार्वजनिक चिन्ताएँ ही उनकें सृजन का आधार हैं और सही मायने में वे समकालीन सरोकारों को वाणी देने में पूर्ण सक्षम सिद्ध हुई हैं। हरी लाल 'मिलन' 302ध्2ए प्लाट-16ए दुर्गावती सदन हनुमन्त नगर, मछरिया रोड नौबस्ता, कानपुर (उ.प्र.)-208021


भूमिका एक वर्ष के अंतराल के बाद ही कवयित्री डाॅ. कमलेश शुक्ला 'कीर्ति' का दूसरा कविता संग्रह आना इस बात का संकेत है कि डाॅकमलेश ने कविता को महज फैशन के रूप में न लेकर एक गम्भीर सरोकार के रूप में अपनाया है। इनके इस दूसरे संग्रह 'मैं कविता हूँ' कि तमाम कविताओं को प
इन कविताओं में नारी जीवन के दुखों, कष्टों और संवेदनाओं के ऐसे जीते-जागते चित्र हैं, जिनमें उसकी जिन्दगी अपनी सम्पूर्ण अवस्थाओं, विश्वासों, परम्पराओं, समर्पण और मानवीय संवेदनाओं के साथ विविध रंगों में उभरकर सामने आई है।
काव्य मनीषियों ने कविता को वर्ग द्वारा अपने किए गए संवाद का वह सहज स्वरूप भी माना है जो तमाम अवरोधों से अप्रभावित रहते हुए सदैव शास्वत और गतिमान रहता है। कविता के साथ किया जाने वाला यह संवाद उस भाव भूमि पर जन्म लेता है जहाँ पीड़ा और दुःख भरी बदरियाँ और शीतल मंद बयार बनकर कविता के रूप में जन्म लेता है। यही कारण है कि ये कविताएँ हमें अभिभूत भी करती हैं और रोमांचित भी। इसके साथ-साथ रचनाओं में अभिधा, लक्षणा, व्यंजना तीनों रूप दृष्टि और सम्भावनाओं से भरी पूरी इन कविताओं को 
ेरे लिए कविता के साथ आत्मीय रिश्ते की जगमगाहट को महसूस करने जैसा है। मुझे विश्वास है कि मेरी तरह तमाम पाठक भी इस गरमाहट को महसूस करेंगे।