(पुस्तक समीक्षा) सामाजिक विसंगतियों की खुली किताब है विनोद कुमार विक्की की मूर्खमेव जयते
 

 

व्यंग्य लेखन की दुनिया से मेरा रिश्ता बहुत करीबी है, यही वजह है कि इसकी लेखन  प्रक्रिया से मैं भलीभांति परिचित हूँ। किसी को हँसने के लिये मजबूर करना और अपनी बात उस हँसी के साथ उसके भीतर तक पहुँचा देना व्यंग्यकार की एक ऐसी खूबी होती है जो निश्चित ही हर लेखक के पास नहीं होती। इसी खासियत की वजह से हरिशंकर परसाई जी और शरद जोशी जी को मैंने बहुत पढ़ा है, सराहा है। सामाजिक विसंगतियों पर लिखे गए ऐसे ही एक व्यंग्य संकलन “मूर्खमेव जयते युगे-युगे” – विनोद कुमार 'विक्की' को पढ़ना मेरे लिये नया अनुभव रहा।

महिलाएँ व पत्नियाँ व्यंग्यकारों की प्रेरणा का मुख्य स्रोत रही हैं। विनोद जी वहीं से शुरूआत करते हैं जिसे उन्होंने साहित्य में विचारमंथन नाम दिया है। महिलाओं को लेकर लिखे गए चुटकुलों में से एक है यह जो महिला होने के नाते मुझे पसंद नहीं आया। लेकिन जैसे-जैसे आगे पढ़ना शुरू किया लेखक की व्यंगात्मकता-गंभीरता से परिचय होने लगा। सामाजिक सरोकारों से जुड़े ऐसे कई बिन्दुओं पर उन्होंने कलम चलायी है जहाँ आज की विसंगतियों को उजागर करते हुए करारी चोट की गयी है। 

टीवी एंकर के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया व्यंग्य है – “तेरी भौं-भौं मेरी म्याऊँ-म्याऊँ” जो आज के टीवी एंकरों की चिल्ला-चिल्ला कर अपनी बात कहने की शैली को मजेदार ढंग से प्रस्तुत करता है। “कटघरे में मर्यादा पुरुषोत्तम राम” में आज के जमाने में कटघरे में राम को खड़ा कर आज की न्याय व्यवस्था पर तगड़ी चोट की गयी है। फरियादी, वकील, जज के संवादों के माध्यम से इसकी प्रस्तुति व्यंग्य नाटक का रूप ले लेती है। 

किताब के शीर्षक का एक खास भाग है “मूर्खमेव जयते” जो अपनी बात सीधे कहने की क्षमता रखता है। यह इस संकलन का सबसे महत्वपूर्ण भाग है। मूर्खता और बुद्धिमानी के बीच आज की व्यवस्थाओं को चतुराई से फिट करके लेखक द्वारा अपनी बात कह दी गयी है। “आश्वासन और शपथग्रहण” – राजनीति और व्यंग्यकारों का रिश्ता अटूट है। स्त्रियों के बाद अधिकांश व्यंग्य लेखक अपने विषय नेताओं, राजनीति और सत्ता के गलियारों में ढूँढ लेते हैं। विक्की जी भी कहीं पीछे नहीं रहे, कई लेखो में इस विषय पर उनकी धारदार कलम चली है जिनमें हास्य को परोसते हुए पाठक को चटखारे लेने के लिये भी बाध्य किया गया है। “चुनावी हास्यफल” में राशियों के अक्षरों का जोड़-तोड़ भरपूर हास्य के साथ तो है ही साथ ही शाब्दिक प्रयोग बेहद सराहनीय है। सहज हास्य को बेहद सुनियोजित तरीके से प्रस्तुत करने की महारथ हासिल है लेखक को। 

“फेसबुक की उपयोगिता” को अपने शब्दों में दर्शाया है अब साइड इफेक्ट्स भी तो हैं उनसे भला कैसे दूर रह सकते थे विक्की जी। “सोशलमीडिया शिक्षा केंद्र” भी गजब का लेखन चातुर्य लिये है। हर प्रकार की सलाह आपको यहाँ मिल जाती है। अंग्रेजी के शब्दों का भरपूर प्रयोग जरूरी था। “सीज़नल साहित्यकार” में अलग-अलग रस के साथ बेहतरीन प्रस्तुति की है और अंग्रेजी का दिल खोल कर प्रयोग किया गया है। साहित्य के रसों के आस्वादन के साथ विनोद जी की लेखनी का भी आस्वादन रुचिकर है।

“स से समीक्षक” रचना सटीक तो है ही, तीखी मिर्ची भी है जिसका तीखापन आज हर रचनाकार झेलता है। इन दिनों पुस्तकों का समीक्षकों के पास पहुँचना, उनका 'स्पीड रीडिंग' करना और समीक्षा लिखना कुछ ऐसी प्रक्रिया होती जा रही है कि पुस्तक के साथ न्याय हो न हो, समीक्षक के साथ बहुत न्याय होता है। एक ही समीक्षा को कई जगह छपवा कर वह अपने नाम के आगे गंभीर आलोचक की तख्ती लगा ही लेता है। लेखक व समीक्षक के बीच आपसदारी की बात जग जाहिर हो जाती है।

“मैं कुर्सी हूँ”, हमारा हिन्दी का शब्द कुर्सी बहुत कुछ कह जाता है। उसके हर उर्जे-पुर्जे में कितना ताकत होती है इसका आभास इसके उच्चारण भर से हो जाता है। “मेरी एक खासियत है कि मेरे ऊपर बैठने वालों के चित्र तो बदलते हैं लेकिन चरित्र नहीं”, जैसे लेखकीय प्रयोग भाषा की गहराई को हमारे सामने लाते हैं। 

“भारतीय रेल दर्शन” “मैं जूता हूँ” के साथ-साथ “पत्नी पाकिस्तान और पेट्रोल” पढ़ा। पत्नी को सारे व्यंग्यकार अपना विषय भर बनाते हैं पर हकीकत में शायद यह नहीं होता। ऐसा करने से वे अपने साथियों की वाहवाही तो लूट लेते हैं लेकिन पत्नियों की नहीं। “भारत बंद महोत्सव” “यक्ष-व्यंग्यकार वार्ता” नये और अच्छे विषय हैं। कद्दू करेला वाली रचनाओं जैसे बेहतरीन प्रयोग हैं। प्रश्न-उत्तर के माध्यम से विनोद जी ने धारदार कटाक्ष किए हैं।  

कुछ शब्द हमेशा डिक्शनरी से अलग अपने अर्थ देते हैं, खासतौर से लेखकों के लिये, जैसे “सेटिंग”, यह व्यंग्य एक लघुकथा की तरह है जो रिश्वतखोरी पर करारी चोट करती है। 

“मैं भी व्यंग्यकार” में साहित्यकार की इच्छा दर्शायी गयी है कि ऐसे लेखक मुट्ठी भर हैं। हर-हर व्यंग्यकार, घर-घर व्यंग्यकार वाला नारा प्रभावशाली है। आज की विसंगतियों और आम मानसिकताओं पर हथौड़ा मारता व्यंग्य है – “पुस्तक मेले में पुस्तक विमोचन”। इस विषय पर कई लेखकों के व्यंग्य पढ़े हैं। लेकिन विनोद जी के व्यंग्य की खास बात यह है कि आपने पूरी यात्रा का वर्णन बखूबी किया है। चाय-समोसे की जुगाड़ और प्रगति मैदान में लिए गए विमोचन के फोटो पर ऐसी तीखी कलम चली है कि वह कुछ सोचने को मजबूर करती है। मुझ जैसे विमोचन की धारणा के विरोधी लेखकों को थोड़ा संबल देती है कि और लेखक भी हैं जो कुछ ऐसा ही सोचते हैं। “हाय-हाय हिन्दी” में अपनी विशिष्ट शैली में हिन्दी की दुर्दशा का बयान किया है लेखक ने। अपनी भाषा के लिये हमारा रोना-धोना 14 सितंबर को अपने चरम पर दिखाई देता है, शेष दिनों में तो जो है सो है की तर्ज में हम अपनी गाड़ी धकाते अपने बच्चों को अंग्रेजी बोलते देख खुश होते रहते हैं। 

“सेटिंग” की तरह कुछ और व्यंग्य जैसे “रावण दहन”, “शुभ-अशुभ” लघुकथा शैली में लिखे गए हैं जो अपना अलग ही प्रभाव छोड़ते हैं। “उफ ये साउथ की फिल्में” उम्दा तरीके से लिखा गया ऐसा व्यंग्य है जो भाषायी तलवार ऐसी चलाता है कि पढ़ते हुए हॉलीवुड-बॉलीवुड की खिचड़ी का आनंद आता है। “साउथ की फिल्में फैक्ट के बजाय स्पेशल इफेक्ट पर चलती हैं” जैसे कई प्रयोगों से लेखक ने चौकै और छक्कों की बरसात की है।  

“मैं स्त्री हूँ” में स्त्रियों की विडम्बनाओं का चित्रण बखूबी किया है। “फेसबुक पर रोजनामचा” व “साहित्यकार योनि का जीवनचक्र” बहुत प्रभावित करते हैं। प्रकाशक, समीक्षक, संपादक से रोचक सामना करते हुए शब्दों की फुलझड़ियाँ छोड़ते हैं विनोद जी - “फेसबुक ऐसा मंच है जहाँ से शुरू होती है साहित्यकार बनने की गौरवगाथा। फेसबुक पर प्रकाशन की आड़ में ढेर सारे कच्छा-बनियान गिरोह ऐसे शिशु साहित्यकारों को गोद लेने के लिये तैयार खड़े होते हैं।” “स्वदेशी दीपावली” के साथ चाइनीज़ प्रोडक्ट का मुकाबला नहीं कर पाता हमारा तेल वाला दीपक। चाइनीज इलेक्ट्रिक कैंडल–झालर की भरमार में स्वदेशी दीपावली के पीछे, देशी वस्तुओं के उपयोग का सीधा संदेश मिलता है।

कुल मिलाकर यह किताब एक ऐसी भेल है जिसमें मिठास, खटास के साथ हरी मिर्ची का तड़का है जो व्यंग्य पढ़ने के स्वाद को पूर्णता देता है। 

 

 


डॉ. हंसा दीप