(पुस्तक): जीना इसी का नाम है 



       राजकुमार जैन 'राजन' देश में ही नहीं विदेशों में भी साहित्य में एक स्थापित नाम है । उनकी लिखी पुस्तकें देश-विदेश में अनुवादित की जा रही हैं । जब पिछले वर्ष उनका कविता संग्रह " खोजना होगा अमृत कलश " आया , तो पाठक उनके कवि रूप को देखकर सुखद आश्चर्य में डूब गए । पाठकों ने उस काव्य संग्रह को भरपूर सराहा । अब वे आलेख संग्रह लेकर पुनः पाठकों के समक्ष नए रूप में अवतरित हुए हैं । निश्चित ही उनमें से बहुत से आलेख पहले भी पाठक पढ़ चुके होंगे । इन्हें आलेख लेखक द्वारा कहा गया है इस स्वीकारोक्ति के साथ कि ये उनके विभिन्न पत्रिकाओं के सम्पादन के दौरान लिखे गए सम्पादकीय हैं । अतः इस पुस्तक को पढ़ते हुए आलेख से अधिक सम्पादकीय रूप ही अधिक मुखर दिखता है । जैसे कि सभी जानते हैं कि राजकुमार जैन राजन विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से भी संपादक के रूप में भी जुड़े हुए हैं । संपादक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है । वह अपने संपादकीय उत्तरदायित्व के दौरान ना केवल सम्मिलित की जानी वाली रचनाओं का सम्पादन करता है , वरन उस पत्रिका में उपलब्ध लिखित सामग्रियों के विषय में अपनी राय भी प्रकट करता है , साथ ही वह अपने मन की बात करते हुए समसामयिक विषय को भी उठाता है , उस पर मनन करता है और उसे पाठकों तक पहुँचाता है ।

          इस संग्रह में राजकुमार जैन राजन जी के चुनिंदा संपादकीय रूपेण आलेख हैं । जो वाक़ई विचारोत्तेजक तो हैं ही , साथ ही समसामायिक भी हैं । प्रत्येक आलेख समाज से जुड़ा हुआ है , और बेहतर समाज की ही बात करता है । यानि समाज की नब्ज़ को पकड़ने में वे कामयाब रहे हैं । आसपास के घटनाक्रम , परिस्थितियों से हर संवेदनशील व्यक्ति का मन व्यथित हो जाता है , और यदि वह कलमकार है , तो स्वयम को उस विषय पर कलम चलाने से रोक नहीं पाता । यही कारण होगा जो लेखक ने प्रथम आलेख " पहले स्वयं का निर्माण करें " इस पुस्तक के लिए चयनित किया । सर्व - निर्माण से पहले ज़रूरी है कि मनुष्य स्वयं को सजाए , संवारे और तराशे । इसके लिए औजार हों - अनुशासन , सद्भावना , प्रेम , दया और करूणा । जब तक मनुष्य सद्गुणों से स्वयं अलंकृत नहीं होगा , तब तक न वह परिवार को दिशा दे सकेगा न समाज को , देश तो बहुत दूर की बात है । प्रथम सोपान स्व - निर्माण ही है , यदि इस पर सफ़लता पूर्वक कदम रख लिया तो बाकी सोपान आसान हो जाते हैं , क्योंकि पहला कदम ही सही दिशा में पड़ा है । इस लिहाज़ से इस आलेख का प्रथम चयन करना लेखक के बुद्धि कौशल को दर्शाता है । दूसरे आलेख में उन्होंने जीवन को समग्रता से ग्रहण करने को कहा है । वे कहते हैं कि भौतिकता के पीछे भागकर मानव ने पतन का रास्ता ही चुना है । बिना मानवीय गुणों और भावनाओं से परे मनुष्य संवेदनहीन हो जाता है । शायद यही कारण है आज मनुष्य हर पल डर के साये में जी रहा है । बुराइयाँ प्रभावी हो गईं हैं और अच्छाइयाँ गौण।लेखक की इस ओर चिंता स्पष्ट परिलक्षित हो रही है ।

          समाज की परिकल्पना स्त्री के बिना असम्भव है । वह समाज की नींव है । सदियाँ गुज़र गईं , उसे अपने अस्तित्व को पहचानने और उभारने में । उनका तीसरा आलेख महिलाओं की बात करता है , उसके अच्छे - बुरे दोनों पहलुओं पर बात की गई है , बावज़ूद इस आलेख को पढ़ते हुए नारी के प्रति नकारात्मक पक्ष अधिक दिख रहा है । ऐसे में शीर्षक आलेख से अलग जा रहा है । ऐसा प्रतीत हो रहा है कि स्त्री के प्रति अपने पूर्वाग्रह को लिखने के लिए शुरुआत उसके दैवीय रूप से की गई । लेखक जो कहना चाह रहा था , शुरुआत उसकी मात्र भूमिका भर थी । आज जब स्त्री मुखर हो रही है , स्वयं के अनुसार जीना चाह रही है तो यह तो एक सुखद बयार है। पुरुष हो या स्त्री , ये उसका निर्णय है कि उसे जीवन में क्या करना है , जब तक समाज हित में कुछ गलत न हो । लेखक द्वारा स्त्रियों का किटी पार्टीज़ , फैशन और पहनावे को चिन्हित करना उनकी सोच पर प्रश्नचिन्ह लगाता है । एक साहित्यकार होने के नाते उनकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि एक स्त्री को क्या पहनना है , क्या करना है , ये निर्णय उसे ही लेने दे । पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण की शिकायत केवल स्त्रियों से ही क्यों ? बेहतर होता कि इस आलेख में गहराई से स्त्री मन की परतों को खोला होता , न कि स्थूलता में सतही बात की जाती ।

          रिश्तों पर लिखे गए आलेख में रिश्तों को डिस्पोज़ल कहना एकदम उचित है । आज स्वार्थपूर्ति और अति महत्वाकांक्षा ने मनुष्य को अवसरवादी बना दिया है । उसके लिए रिश्ते 'यूज़ एंड थ्रो' वाले हो गए हैं । राजकुमार जैन चूँकि एक बाल साहित्यकार हैं तो बच्चों से जुड़ी बात न करें ये तो सम्भव ही नहीं बच्चों में बढ़ती संस्कारहीनता और ग़लत दिशा में बढ़ती प्रतिस्पर्धा का कारण उन्हें बच्चों और पुस्तकों के बीच बढ़ती दूरी लगती है । तभी वे कहते हैं कि यदि हमें बालकों को आशा और विश्वास देना है , अंधेरों में भटकने से रोकना है तो उन्हें पुस्तकों से जोड़ना ही होगा । उनकी इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता ।

धन्यवाद और आभार ऐसे दो शब्द हैं , जो दुश्मन को भी झुका दें । लेखक ने इन शब्दों की शक्ति को समझा है । इसीलिए इस विषय पर कलम चलाई है । ये शब्द मनुष्य को बहुत ऊँचा उठा देते हैं । यदि कृतज्ञता प्रकृति के प्रति हो तो वह मानवता का श्रेष्ठ उदाहरण बन जाती है । पर्यावरण असंतुलन के लिए उत्तरदायी सारे कारणों का इस एक कृतज्ञता के भाव से निवारण किया जा सकता है । समस्या पर लिखा गया आलेख का प्रारम्भ उनके भीतर बैठे कवि हृदय से हुआ है । पँक्तियाँ जैसे लयबद्ध हो गुनगुना रही हैं । 

        खुशहाल समाज की परिकल्पना वाले लेखक से नशा जैसा गम्भीर विषय कैसे अछूता रहता भला ? नशा वह दीमक है जो धीरे-धीरे पूरे परिवार को चाटकर ख़त्म कर देता है । ये जानते हुए भी आज समाज में नशा करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है । इस पर उनके विचार ग्रहणशील हैं । शेष आलेखों में भी उन्होंने सभी विषयों को छूने का प्रयास किया है । चाहे राष्ट्र की बात हो या संस्कृति की , भाषा का मुद्दा हो या आत्मसंतोष का ... सभी के लिए आवश्यक है कि वे देश , समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझें । सद्गुणों की आँच में खुद को पकाएँ , और मानव विकास का मार्ग पकड़ें और जीवन निर्माण करें । पुस्तक में समाहित सभी विषय प्रासंगिक हैं । यदि मनुष्य इसका कुछ प्रतिशत भी जीवन में उतार लें तो इस पुस्तक का उद्देश्य और लेखक का श्रम दोनों सफ़ल हो जायेंगे । पुस्तक में संग्रहित आलेख कई वर्षों की मेहनत और अनुभव का प्रतिफ़ल है । बावज़ूद इसके लगता है कि कहीं न कहीं इन आलेखों को संग्रहित कर पुस्तक का रूप देते समय चूक हो गई है । पृष्ठ - 9 / 89 , 12 / 79 और 29 / 64 आलेखों की पुनरावृत्ति हो गई है हल्के से अंतर लिए शीर्षक के साथ । पृष्ठ - 22/ 98 और पृष्ठ - 67 / 83 पर प्रकाशित आलेखों के विषय एक ही हैं । बेहतर होता इन्हें एक ही आलेख में प्रस्तुत किया जाता । इतने सुस्थापित साहित्यकार अथवा प्रकाशक ऐसी सम्पादकीय चूक वाक़ई आश्चर्यचकित करने वाली है । आलेख चूँकि सम्पादकीय फॉर्मेट में लिखे गए थे , इसलिए बहुत छोटे हैं । कुछ रोचकता भी है , लेकिन फिर भी जैसे कविता , कहानी , उपन्यास आदि को पढ़ते हुए "अब क्या होगा? " वाली उत्सुकता बनी रहती है , वह एक साथ इतने पुस्तकाकार संपादकीय पढ़ते हुए नहीं रहती । पाठक अनुक्रमणिका पढ़ने के बाद भली -भाँति जानता है , बात विषय निर्धारित है । सन्दर्भ के साथ उदाहरणों की पूरी तरह अनदेखी पाठक को खटक सकती है , क्योंकि इससे रोचकता में कमी आती है । शीर्षक भी बहुत बड़े अधिकांश वाक्य रूप में हैं । इस कारण उसके विषय तो पाठक के मस्तिष्क में रह सकते हैं , लेकिन एक - दो को छोड़ दिया जाए तो शायद ही कोई शीर्षक अवचेतन में भी जगह बना सके । बहरहाल लेखन एक साधना है , कलम से निकला हुआ एक-एक शब्द मंत्र, जिसके आगे हर सिर नत-मस्तक है । इस आलेख संग्रह के लिए राजकुमार जैन राजन जी को ढेर सारी शुभकामनाएँ प्रेषित करते हुए उनके स्वर्णिम भविष्य की कामना करती हूँ । 

           

समीक्षक- शशि बंसल गोयल



  • किसीभी प्रकार की खबर/रचनाये हमे व्हाट्सप नं0 9335332333 या swaikshikduniya@gmail.com पर सॉफ्टमोड पर भेजे।

  • स्वैच्छिक दुनिया समाचार पत्र की प्रति डाक से प्राप्त करने के लिए वार्षिक सदस्यता (शुल्क रु500/- ) लेकर हमारा सहयोग करें

  • साथ ही अपने जिले से आजीविका के रूप मे स्वैच्छिक दुनिया समाचार प्रतिनिधिब्यूरो चीफरिपोर्टर के तौर पर कार्य करने हेतु भी हमें8318895717 पर संपर्क करें।