(लेख) लोकतन्त्र में लोकमत का महत्व

लोकतन्त्र में लोकमत का एक खास महत्व होता है इसलिए उसके स्वभाव और महत्व को समझ लेना भी जरूरी है। लोकमत का शाब्दिक अर्थ तो स्पष्ट है—लोक यानि जनता का मत। लेकिन राजनीतिक शासन के लिहाज से उसका अर्थ इतना सरल नहीं है। पहले तो किसी समाज की पूरी जनता कभी किसी विषय पर व्यक्तिगत रूप से नहीं सोचती, बल्कि बहुसंख्यक लोग कभी सोचते ही नहीं। इसलिए लोकमत का मतलब उन लोगों के मत से ही होगा जो सार्वजनिक मसलों पर ही सोचते हैं। अब सवाल यह है कि सोचने वालों में से किन लोगों के मत को लोकमत माना जाएगा। कुछ विद्वानों का कहना है कि एक या थोड़े से लोगों का मत भी लोकमत कहा जा सकता है। अगर वे बुद्धि और विवेक पर आधारित हों और उसका मकसद सार्वजनिक भलाई का हो। लेकिन यह नज़रिया सही नहीं है, क्योंकि सार्वजनिक जीवन थोड़ी तादाद वालों की राय से नही चल सकता। अल्पसंख्यकों की राय तभी अमल मे लाई जा सकती है जबकि बहुसंख्यक लोग उसे आसान, भय या स्वार्थ के कारण या जानबूझकर भरोसे के साथ कबूल कर लें या उदासीनता के कारण उसका विरोध न करें। अक्सर ऐसा होता है कि विवेकपूर्ण और लोकहित को ध्यान में रखकर सोचने वालों के पास प्रचार के साधन नहीं होते इसलिए उनके विचार उन्हीं तक सीमित रह जाते हैं।


कुछ लोग बहुसंख्यकों की राय को लोकमत मानते हैं। नज़रिया यह भी सही नहीं जान पड़ता। लोकमत के अंतर्गत तो सोचनेवाले सभी लोगों के विचार सम्मिलित होने चाहिएँ चाहे वे अच्छे हों या बुरे। लॉर्ड ब्राइस का कथन है कि “आमतौर पर यह शब्द (लोकमत) उन सब नजरियों के मेल के लिए इस्तेमाल किया जाता है जिन्हें लोग सार्वजनिक हितों से सम्बद्ध विषयों पर जाहिर करते हैं। इस अर्थ में सब तरह के विश्वासों, धारणाओं, पूर्वाग्रहों और आकांशाओं का सम्मिश्रण है।“ 


लोकमत की अहमियत साफ है । लोकतन्त्र में सरकार की सफलता के लिए जरूरी है कि वह हर समय जनता की भावनाओं और विचारों से अवगत हो, उसे पता रहे कि जनता क्या चाहती है और उससे क्या आशा रखती है। दूसरी ओर, यह भी जरूरी है कि जनता सरकार कि नीति और कार्यों से परिचित हो। संक्षेप में, सरकार और जनता के विचारों से एकता कायम करना ही लोकमत का खास काम है। दूसरे शब्दों में, लोकमत असली प्रभु (जनता) और कानूनी प्रभु (सरकार) के बीच संपर्क और संबंध कायम करने का जरिया है। एक विद्वान का मत है कि “लोकमत वह ताकत है जो राज्य के संगठन में रास्ता दिखाने और निर्देशक का काम करती है। सरकार लोकमत के प्रति जिम्मेदार होती है। लोकमत ही वह कसौटी है जिसके आधार पर हमारे ख़यालों और आदर्शों का परीक्षण किया जाना चाहिए और उसी के आधार पर उन्हें स्वीकार या अस्वीकार किया जाना चाहिए।“


वर्तमान काल में लोकमत के निर्माण में कई साधन उपलब्ध हैं जैसे पत्र-पत्रिकाएँ, शिक्षा संस्थाएं, विभिन्न समुदाय, रेडियो, टेलीविज़न, सिनेमा, मंच, फेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्सअप, विधानांग आदि। राजनीतिक दल या राजनेता इन सब साधनों का इस्तेमाल करते हैं और अपने अनुकूल लोकमत का निर्माण करने की कोशिश करते हैं। आमलोगों के लिए इन सब साधनों का इस्तेमाल करना आसान नहीं होता। यही कारण है कि इस युग में राजनीतिक दल अक्सर जनता को बहकाया करते हैं। जनता खुद नहीं सोच पाती। विचार और धारणाएँ धुआँधाड़ प्रचार द्वारा जनता पर थोप दी जाती हैं और जनता भेड़ की भांति हाँकने वाले की एक आवाज़ पर किधर को भी मुड़ जाती है।


प्रबुद्ध तथा कल्याणकारी लोकमत के निर्माण के लिए जरूरी है कि लोगों को सार्वजनिक मामलों में दिलचस्पी हो। दूसरे, उनमें सोचने-समझने की ताकत हो और सोचने-समझने की ताकत का विकास तभी हो सकता है जब कि सभी लोग पढे-लिखे हों। लेकिन रटरटाकर डिग्रियाँ हासिल कर लेना पढे-लिखे होने का सबूत नहीं है। सुशिक्षित लोगों में समस्याओं को समझने की क्षमता और हासिल की हुई जानकारी के आधार पर समस्याओं के विषय में स्वतंत्रतापूर्वक, निष्पक्ष भाव से और निडर होकर सोचने की ताकत होनी चाहिए। और क्योंकि ये सभी गुण समाज में नहीं पाये जाते हैं इसलिए अक्सर बिगड़ा हुआ लोकमत ही ज्यादा असरदार साबित होता है।


इसलिए आज के युग में सोचा जाना चाहिए की रोटी, कपड़ा और मकान के अलावा शिक्षा अपना एक अलग महत्व रखती है, बशर्ते वह किसी एक विचारधारा या अजेंडे से ओतप्रोत न हो। व्यक्ति के लिए विश्व में समाहित सभी विचारधाराओं का ज्ञान बेहद जरूरी है। यदि समाज पढ़ालिखा सुशिक्षित होगा तो, एक तर्कशील समाज का जन्म होगा, और तर्कशील समाज अपनी समस्याओं का निदान भी खुद कर सकेगा, अपनी तरक्की का मार्ग स्वयं ही निर्धारित कर सकेगा, तब वह किसी के बहकाने से आसानी से बहकेगा नहीं बल्कि एक नैतिक समाज के विकास की ओर अग्रसर होगा और विश्व के लिए एक तर्कशील राष्ट्र की मिसाल बनेगा। और तब वह लोकमत एक राष्ट्र का लोकमत नहीं बल्कि एक वैश्विक लोकमत होगा जो अहिंसा, परोपकार, स्वतन्त्रता, समानता, भाईचारा, लोकतान्त्रिक संविधानवाद, राष्ट्रवाद, न्याय, कर्तव्यों और अधिकारों के समान तालमेल, सरकार, राजनेताओं एवं संसदीय प्रणाली  की जवाबदेही, समग्र कल्याण, सामाजिक सोहार्द का प्रतीक होगा। फिर इन सभी आदर्शों पर आधारित लोकमत एक आदर्श लोकमत होगा, ऐसा कहा जा सकता है।  



डॉ अजय कुमार, 


किसी भी प्रकार की खबर/रचनाये हमे 9335332333 या swaikshikduniya@gmail.com पर सॉफ्टमोड पर भेजे।