जीना इसी का नाम है (आलेख-संग्रह)
समीक्षक : ‌डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा 

वर्तमान समय के सर्वाधिक सक्रिय लेखक, कवि, संपादक और प्रकाशकों में राजकुमार जैन 'राजन' का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। 'राजन' जी से मेरी कभी प्रत्यक्ष भेंट नहीं हुई, न ही कभी दूरभाष पर बात, परन्तु विगत पाँच-सात साल से निरंतर उनकी उत्कृष्ट कोटि की रचनाओं को पढ़ते हुए हमारे बीच एक ऐसा सम्बन्ध स्थापित हो गया है कि लगता नहीं कि हम बालसखा नहीं हैं।

समीक्षित पुस्तक 'जीना इसी का नाम है' राजन जी की लिखी हुई 29 संपादकीय आलेखों का संग्रह है, जो उन्होंने विगत वर्षों में राकेट, मेवाड़ शिरोमणि, श्रमण स्वर, बाल मितान, बाल वाटिका, साहित्य समीर दस्तक, राष्ट्र समर्पण, संगिनी जैसी स्तरीय पत्रिकाओं के संपादकीय दायित्व का निर्वहन करते हुए "अपनी बात" शीर्षक से लिखा था। कुल 104 पृष्ठों की इस पुस्तक का प्रकाशन 2020 में अयन प्रकाशन, नई दिल्ली से हुआ है।

वैसे तो सभी सम्पादकीय आलेख सामान्यतः संपादक के अपने जीवनानुभव ही होते हैं, परन्तु  यदि वह संपादक राजकुमार जैन 'राजन' जैसा बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार हो, जो तन-मन-धन से साहित्य के लिए समर्पित हो और एक साथ एक-दो नहीं, बल्कि पूरे उन्तीस सम्पादकीय आलेख एक ही पुस्तक में पढने को मिले तो फिर क्या कहने ? सद्य प्रकाशित पुस्तक 'जीना इसी का नाम है' में राजन जी ने यथार्थ के धरातल पर खड़े होकर विभिन्न विषयों पर अपने विचार खुलकर प्रकट किये हैं। इस पुस्तक के संपादकीय आलेख 'अपनी बात' के अंतर्गत संपादकीय दायित्व का उल्लेख करते हुए राजन जी लिखते हैं, "किसी भी पत्रिका के संपादक की जिम्मेदारी ठीक उसी प्रकार होती है, जैसे एक मकान के निर्माण में कारीगर की। स्थान-स्थान से सामग्री प्राप्त करना आसान होता है, लेकिन उस सामग्री का कैसे उपयोग किया जाए, यह एक सुविज्ञ कारीगर ही समझ सकता है। ठीक उसी प्रकार किसी भी पत्रिका के लिए रचनाओं, प्रतिक्रियाओं का अंबार होता है। इनमें देश, समाज, भाषा, संस्कृति को ध्यान में रखते हुए उनका चयन करना आसान नहीं होता। संपादक अपनी चेतना और सामर्थ्य के अनुसार रचनाओं का चयन करता है, जिसमें सामाजिक हित का प्रयोजन भी शामिल होता है।" 

हमारा मानना है कि यदि पाठक चाहें तो "जीना इसी का नाम है" में संग्रहित सभी आलेख एक ही बैठक में पढ़ सकते हैं, परन्तु इसका असली मजा तो तब है, जब हर अनुच्छेद (पैराग्राफ) को पढ़ने के बाद एक बार उस पर चिंतन किया जाये। 

'आप भले, जग भला' वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए अपनी बात को वे ‘पहले स्वयं का निर्माण करें’ शीर्षक आलेख में कुछ यूं प्रकट करते हैं, “मानव जीवन हमें उपहार में मिला। हमें ईश्वर प्रदत्त इस उपहार को इतना सजाकर रखना चाहिए कि दूसरों को भी सुन्दर लगे। जब तक हमारे अन्दर दूसरों के लिए प्रेम, दया, करूणा का भाव विकसित नहीं होगा, तब तक चाहे हम कितने भी धनी, ज्ञानी होंगे, अच्छे इंसान नहीं कहे जा सकेंगे।...... समाज निर्माण एवं राष्ट्र निर्माण की चर्चा करने वाले सबसे पहले स्वयं का जीवन निर्माण करें। शुभ शुरुआत स्वयं से होगी, तभी यह आकांक्षा फलीभूत हो सकेगी।"    

अपनी बात की पुष्टि करने के लिए राजकुमार जैन 'राजन' जी ने आवश्यकतानुसार कई उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं, जो बहुधा प्रकृति से लिए गए हैं। प्रस्तुतीकरण इतना आकर्षक कि निराशा से डूबे मनुष्य के हृदय में आशा का संचार हो जाए। ‘समस्या की मिट्टी में समाधान का अंकुर फूटता है’ शीर्षक आलेख की ये पंक्तियाँ देखिए, “संघर्ष के कारण ही व्यक्ति जीवन में आगे बढ़ता है। यही संघर्ष जीवन में नए उत्साह की, नए साहस की लहर लाता है। संघर्ष का सामना करने का सर्वोत्तम उपाय कि उसका स्वागत किया जाए। संघर्ष जीवन की एक कसौटी है जो अंत में विजय का द्वार खोलती है और समस्या का समाधान करती है। समस्या की मिट्टी में समाधान का अंकुर फूटता है। जागृत व्यक्ति हर समस्या का समाधान पा ही लेता है। वास्तव में संघर्ष तो वह चुम्बक है, जो व्यक्ति को लोहे से स्पर्श करवाकर सोने में परिवर्तित करवा देता है।“          

"किताबें दिल और दिमाग को रौशनी देती हैं" शीर्षक आलेख में राजन जी ने बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए सद्साहित्य उसमें भी ई-बुक्स (डिजिटल बुक) की बजाय मुद्रित किताबों की महत्ता बताई है। उनका मानना है कि ई-बुक्स की अपनी महत्ता एवं उपयोगिता है, परंतु वे कभी भी मुद्रित पुस्तकों का स्थान नहीं ले सकेंगी।

 पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति का अन्धानुरण करते हुए आज के युवा तथाकथित आधुनिकीकरण की दौड़ में शामिल होकर मानवीय संबंधों को भी उपयोगितावाद की तर्ज ‘यूज एंड थ्रो’ समझने लगे हैं। इस सम्बन्ध में उन्होंने ‘रिश्तों को डिस्पोजल होने से बचाएँ’ शीर्षक आलेख में लिखा है, “आजकल डिस्पोजल का युग है। ‘यूज एंड थ्रो’ जो भी चीज अनुपयोगी हो गई है, उसे फेंक दो।...... नए दौर में जन्म के रिश्ते भुलाए जा रहे हैं, मुँह बोले रिश्तों की बात क्या कहें। हमारे सारे रिश्ते नए दौर में डिस्पोजल होते जा रहे हैं। ऐसी ही कुछ भावाभिव्यक्ति राजकुमार जैन ने अपनी एक कविता ‘मन का कैनवास’ में भी की है, “आधुनिकीकरण के इस दौर में/रिश्ते भी डिस्पोजल हो गए हैं/दिल टूटा, उम्मीदें मुरझाईं-सी/अरमान भटके-भटके/रूह तड़पती और मानवता हुई दिशाहीन।"

"नारी ने विकास के नए आयाम को छुआ है'' शीर्षक आलेख में राजन जी ने भारतीय समाज में अनादिकाल से आज तक नारी की स्थिति का आकलन करते हुए वर्तमान में पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के अंधानुकरण के दुष्प्रभाव पर भी चिंता प्रकट की है। 

‘सत्य हमारी सभ्यता संस्कृति का सार है’ शीर्षक आलेख में राजन जी ने देश में हिन्दी की दुर्गति पर अपने विचार कुछ यूँ प्रकट किए हैं, “हिन्दी के सबसे ज्यादा दुश्मन वे हिन्दी वाले लोग हैं, जो केवल मंचों पर हिन्दी में भाषण देकर, गोष्ठियाँ आयोजित कर नारे लगाते हैं, सरकारी रुपयों का दुरुपयोग करते हैं। उनके घरों में हिन्दी का कोई वातावरण नहीं होता। उनके बच्चे हिन्दी स्कूलों में नहीं पढ़ते। ऐसे लोग राष्ट्र की गरिमा की रक्षा नहीं कर सकते। इसमें दो राय नहीं कि अंग्रेजी अच्छी भाषा है। ग्लोबलाईजेशन के मौजूदा दौर में यह दुनियाभर में समझी जाती है। लिहाजा तरक्की के लिए रोजगार पाने के लिए नौजवानों को अंग्रेजी सीखना जरूरी है। लेकिन अपने देश में हम अंग्रेजी को हिन्दी के सिर पर बिठाएँगे, तो हमारी अस्मिता, हमारा वजूद ख़तम होने में देर नहीं लगेगी।’’              

पुस्तक का नाम ही नहीं संग्रहित सभी आलेख के शीर्षक बहुत ही सार्थक और सूक्ति के रूप में हैं। आलेख में प्रकट किए गए राजन जी के विचार महज काल्पनिक या हवा-हवाई नहीं, बल्कि यथार्थ के धरातल पर आधारित बहुत ही प्रेरक हैं। यदि हम कहें कि संग्रह का प्रत्येक आलेख एक-एक प्रकाश-स्तम्भ के समान हैं, जिनसे प्रेरित होकर पाठक अपना जीवन आलोकित कर सकते हैं।  

पुस्तक की डिजाईन और साज-सज्जा पर विशेष ध्यान दिया गया है। व्याकरणिक और वर्तनीगत अशुद्धियाँ भी नगण्य हैं। हाँ, इतना जरूर है कि सम्पादकीय त्रुटिवश पुस्तक में पहला सम्पादकीय आलेख ‘पहले स्वयं का निर्माण करें’ पच्चीसवें क्रम पर पुनः ‘सबसे पहले स्वयं का जीवन निर्माण करें’ शीर्षक से प्रकाशित हो गया है। तथापि हम यह मानते हैं कि इस पुस्तक में राजन जी के 29 संपादकीय आलेख हैं क्योंकि अनुक्रम में उल्लेखित शीर्षक के अलावा इस पुस्तक का भी तो एक संपादकीय आलेख 'अपनी बात' के अंतर्गत है। इनके सभी आलेख पठनीय हैं और पुस्तक संग्रहणीय है। 

हमें आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक सभी आयु, वर्ग को लोगों को पसंद आएगी और हिन्दी साहित्य जगत में अपना विशिष्ट मुकाम बनाएगी। एक बेहतरीन पुस्तक के प्रकाशन के लिए आदरणीय राजकुमार जैन राजन को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ।



समीक्षक : ‌ डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा(रायपुर)



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