भय बिन होय न प्रीति?

सुन्दरकाण्ड में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने यही कहा है –

विनय न मानत जलधि जड़, गये तीन दिन बीत.
बोले राम सकोप तब, बिन भय होय न प्रीत.

वे आगे कहते हैं –

सठ सन विनय, कुटिल सन प्रीती,सहज कृपण सन, सुन्दर नीती.

ममता रत सन ज्ञान कहानी,जिमि लोभी सन विरति बखानी.

क्रोधहिं सम, कामहिं हरि कथा,ऊसर बीज बये भल जथा.

अर्थात्, मूर्खों से विनय करना, कुटिल व्यक्ति के साथ प्रेम की बात की अपेक्षा, कंजूस से दान – पुण्य की नीति युक्त बात कहना, मोह ग्रस्त व्यक्ति को ज्ञान देना, लोभी को वैराग्य का ज्ञान देना, क्रोधी को समझाने का प्रयास, और काम वासना में लिप्त व्यक्ति से भग्वत्भजन की बात करना उसी प्रकार व्यर्थ है, जिस प्रकार बंजर भूमि में बीज बोने से बीज भी नष्ट हो जाता है. क्योंकि ये सभी जड़ हैं.
तुलसी आगे लिखते हैं –

काटै से कदरी फरहि, कोटि जतन कोउ सींच,
विनय न मानि खगेस सुन, ड़ांटे पै नब नीच.

अर्थात्, काटने पर केला फल देता है, प्रयत्न पूर्वक सींचने से कुछ नहीं होता. ठीक उसी प्रकार नीच व्यक्ति ड़ांटने पर ही समझता है,नीति की प्रेम की बात उसकी समझ में ही नहीं आती. पुरानी कहावत भी है – “लातों के भूत बातों से नहीं मानते”.
जब मर्यादा पुरुषोत्तम को भी क्रोध करना पड़ा तब मर्यादित रहने  वाला भारत आखिर कबतक सहन करे ?भय बिनु होइ न प्रीति-रामचरितमानस का यह संदेश या नीति बहुचर्चित है और मान्य भी। यह उल्लेख उस प्रसंग से है, जब श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ विनयपूर्वक समुद्र तट पर बैठ गए थे इस आशा में कि वह उनकी सेना को पार जाने में सहायता करेगा। किन्तु जब विनयपूर्वक अनशन-अनुरोध का कोई प्रभाव नहीं हुआ, तब राम समझ गए कि अब अपनी शक्ति से उसमें भय उत्पन्न करना अनिवार्य है। 

"भय बिनु होइ न प्रीति'- वाली एक और सीख "रामचरितमानस' में सुग्रीव के प्रसंग में मिलती है, जब वह श्रीराम की सहायता से बाली-वध के बाद किÏष्कधा का राज्य और अपनी पत्नी रूमा को पा जाने के बावजूद राजकाज को भूल गया था। 

सुग्रीव और समुद्र को दी गईं राम की सीखें हमेशा के लिए सार्थक नीति का संदेश बन चुकी हैं, जो व्यक्ति, परिवार, समाज और देश के परिप्रेक्ष्य में समान रूप से प्रासंगिक हैं। भारत के लिए तो यह और भी अधिक है, जो विशाल और सर्वशक्तिमान राष्ट्र होने के बावजूद छोटे-छोटे देशों या शक्तियों से पीड़ित, प्रताड़ित और पूर्व में पराजित होता रहा है। आज का संदर्भ भी कुछ ऐसा दिखाई पड़ता है। इसका सबसे बड़ा कारण है पहले के राजाओं और अब के राजनेताओं में नि:स्वार्थी देश-सेवा और सतत जागरूकता का अभाव तथा चालाक और   धोखेबाज पड़ोसियों के साथ अंधवि·श्वासी मित्रता उस समय तक जब तक उनका वि·श्वासघात हमारे सामने नग्न रूप से नहीं आ जाता। राम और कृष्ण से लेकर चाणक्य तक इस देश में देशहित और व्यावहारिक कूटनीति कई बार बहुत आहत हुई है।

"भय बिनु होइ न प्रीति' की यथार्थता के आगे की एक और अधिक पेचीदी यथार्थता मानव जीवन में दिखाई पड़ती है। इसका परिचय रामायण और महाभारत में भली प्रकार मिलता है। इसके अनुसार व्यक्ति में कुमति या कुप्रवृत्तियां बढ़कर उस पर इतनी हावी हो जाती हैं कि उसके लिए भय भी बेअसर हो जाता है। वह अपने अहं, मनमानी और स्वार्थ में मृत्यु भय की भी उपेक्षा कर देता है और अंतत: मृत्यु को ही प्राप्त होता है। 

यही प्रसंग आज हमारे भारतवर्ष को जो आज की परिस्थितियां देखते हुए अपनाने की आवश्यकता है कि ऐसा कानून हो जिसकी कड़ी पालना की जाए कोरोना वायरस के लिए बहुत  विनम्र निवेदन करने के पश्चात भी जिन लोगों ने लोकडाउन की पालना को नहीं माना और आज जो हमारी संख्या बढ़ती जा रही है उस पर एक कठोरता पूर्वक इस तरीके का नियम लाना चाहिए ! की परिस्थितियों में सुधार संभव हो सके।

कोरोना वायरस घातक बीमारी से जिसके कारण हमारे प्राण भी जा सकते हैं लेकिन हम इस विकट परिस्थिति को भी नहीं समझ रहे और हम इसका पूर्ण रुप से पालन नहीं कर रहे जिससे कि हमारे लिए बहुत घातक सिद्ध हो सकता है। 

दूसरी ओर हमारा पड़ोसी देश जो इस घातक बीमारी की सही जानकारी ना दे करके और हमारे साथ और पूरे विश्व के साथ एक धोखेबाजी की परवर्ती अपनाता जा रहा है। वह इस परिस्थितियों से उबरने के लिए सभी देशों का सहयोग नहीं कर रहा।

आज वह समय आ गया है कि सभी देशों को संगठित होकर उसे सबक सिखाना ही होगा।

              सुरेंद्र सिंह चारण

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