जेंडर का अर्थ लिंग नही है बल्कि समाज की सामाजिक सोच है। 
जेंडर का अर्थ लिंग नही है बल्कि समाज की सामाजिक सोच है। 

 

 जेंडर शब्द का हिंदी अर्थ लिंग माने तो, फिर अंग्रेजी शब्द "सेक्स" का हिंदी अर्थ क्या होगा? आलेख में जेंडर क्या है? सेक्स व जेंडर में क्या अंतर है? जेंडर संवेदनशीलता क्यो आवश्यक है।सभी प्रश्नो पर विस्तार से चर्चा करनी की जरूरत है। सबसे पहले तो हम देखते हैं कि सेक्स का अर्थ हिंदी में लिंग होता है।लिंग तीन प्रकार के होते है।पुल्लिंग, स्त्रीलिंग व नपुंसकलिंग। तो फिर जेंडर का हिंदी अर्थ क्या होगा? जेंडर हिंदी व अंग्रेजी दोनों में ही प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द है। यदि जेण्डर की प्रकृति की बात करें तो, जेंडर सेक्स के प्रति समाज की सामूहिक, सामाजिक सोच को दर्शाता है।इस लिहाज से हम इसे सामाजिक लिंग भी कहते है।अब हम इन दोनो में मोटा-मोटा फर्क भी समझगे। सेक्स तो प्राकृतिक होता है। इसे बदला नहीं(साधारण परिस्थितियों में) जा सकता है। यह जैविक होता है। यह व्यक्तिगत होता है। इसके विपरीत यदि हम जेंडर की बात करें तो यह परिवर्तनशील होता है। यह सामाजिक व सांस्कृतिक होता है। यह सामूहिक सोच को दर्शाता है। इस प्रकार दोनों में काफी अंतर दिखाई देता है। अब हम उदाहरणों से समझते हैं। मनुष्य के जन्म के साथ ही उसकी व्यक्तिगत पहचान लिंग के रूप मे हो जाती है कि वह मेल है या फीमेल है। मेल में दाढ़ी मूंछ आना इसकी विशेषता है। दोनों के जननांगों में भी अंतर होता है। इसी तरह फीमेल का बच्चे पैदा करना, दूध पिलाना व महावारी आना‌ यह सब इस प्राकृतिक लक्षण है। जिन को बदला नहीं जा सकता है। मेल व फीमेल के  लालन-पालन,पोषण, शिक्षा, रोजगार , व्यवहार, शरीर, राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्रों में शुरू से ही जो अंतर परिवार, समाज द्वारा किया जाता है। वह जेंडर कहलाता है। जैसे लड़के जोर से हंस सकते है। लड़कियों का जोर से हंसना बुरी बात है, उन्हें सिर्फ मुस्कुराना चाहिए। लड़के घर के कामकाज नहीं करते। यह काम तो लड़कियों का ही है। लड़के बुढ़ापे का सहारा होते हैं। लड़कियां तो पराया धन है।  लड़कों को खिलौनो बंदूक, साइकिल पसंद है। लड़कियों को सिलाई, कढ़ाई, बुनाई व गुड़िया जैसे खिलौने पसंद है। लड़के चौराहे पर, सड़क पर खड़े -खड़े बातचीत कर सकते हैं। लड़कियो का चौराहे, सड़क पर बातचीत करना अच्छा नहीं होता है। भारी काम, वजन उठाने व पहाड़ पर चढ़ने जैसे काम लड़के ही कर सकते है, लड़कियां नहीं कर सकती है‌। इस प्रकार की सोच शुरू से ही परिवार, समाज में मेल फीमेल के प्रति बना दी जाती है। इनका पालन-पोषण भी ऐसी ही सोच व परिस्थितियों के बीच होता है। जो एक जेंडर असंवेदनशीलता है। वर्तमान समय में तो जेंडर असंवेदनशीलता में बहुत कमी आ रही है।और यह अच्छी बात है।  समाज की सोच में भी बदलाव आ रहा है। अब तो परिवारों में  मुखिया भी औरतों को भी माना जा रहा है। शिक्षा में भी बालिका शिक्षा पर सरकार का, समाज का खुब जोर रहता है। परिवार में भी लालन-पालन में फर्क आ रहा है। लड़के- लड़कियां कपड़े,बाल, वेशभूषा भी अपनी-अपनी मनपसंद के पहनने व रखने लगे है। महिलाओं और पुरुषों को काम के बदले मिलने वाला पारिश्रमिक बराबर मिलने लगा है। सभी सामाजिक, पारिवारिक व राजनैतिक निर्णयों में भी महिलाओं की सहभागिता बड़ी है। इसी प्रकार हमें जेंडर के प्रति संवेदनशीलता रखते हुए। मेल, फीमेल में किसी प्रकार का विभेद नहीं करना चाहिए‌ इस हेतु परिवार, समाज व विधालय को महती जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी।

 

यह लेखक के विचार है, पाठक का सहमत होना आवश्यक नही है।

 


 

Tr हंसराज "हंस"