"मृत्यु भोज" को मिटाने के लिए सकारात्मक प्रयासों की आवश्यकता है।
"मृत्यु भोज" को मिटाने के लिए सकारात्मक प्रयासों की आवश्यकता है।

 

इस सामाजिक कंलक  के लिए सभी समाजों में अब तक इस कुप्रथा को मिटाने के लिए दंडात्मक तरीके ज्यादा अपनाऐ गये है जैसे-समाज के पंच पटेलों द्वारा बहिष्कार, जुर्माना,थाने में शिकायत आदि।इन सब बातों का परिणाम तत्काल तो नजर आता है। परन्तु वह बदलाव स्थाई नही होता है।उसका कारण मैं यह मानता हूं कि जब तक कोई भी व्यक्ति दबाव,डर,भय,प्रलोभन आदि से कोई काम करता है तो वह कुछ समय के लिए ही हो सकता है।वह स्थाई रूप नही ले पाता। सामाजिक बदलाव जब ही होता है जब उसे समाज के सभी व्यक्तियों द्वारा प्रेम व प्यार के साथ स्वीकार किया जावे।

इस कुरीती के लिए भी हमें ऐसे ही सकारात्मक प्रयासों की आवश्यकता है।

 

इंसान स्वार्थी है। खाने के लालच में कितना गिरता है। इसका नमूना होती है सामाजिक कुरीतियां, ऐसी एक पीड़ा देने वाली कुरीति वर्षों पहले कुछ स्वार्थी लोगों द्वारा समाज में फैलाई गई ।  वह है मृत्यु भोज! यह एक सामाजिक बुराई है। इसको खत्म करने के लिए हम सभी को जागरूक होकर काम करना पड़ेगा इस कुरीति की भयानकता को समझने के लिए चंद लाइनें हैं।   गिरवी रखकर खेत को, किया मृत्यु पर भोज। कैसी निर्मम रीत है, कितनी लंगड़ी सोच।  किसी के घर पर अगर खुशी का मौका हो तो समझ में आता है कि मिठाई बनाकर खिला कर खुशी का इजहार करें। खुशी जाहिर करें। लेकिन किसी व्यक्ति के मरने पर सगे संबंधियों, आज पड़ोस के लोगों को मिठाईयां परोसना, पंगत में बैठकर खाना खाना। इंसान की निम्न सोच को दर्शाता है। हमारे समाज में यह भोज की परंपरा विकराल रूप लेती जा रही है। तीसरे दिन से ही समाज में भोज का आयोजन कई रूपों में शुरू हो जाता है। तीये का भोजन, 11वीं, 12वीं, तेरहवीं, छ:माही, बारह माही आदि रूपों में चलता रहता है । कभी-कभी तो मैंने तो लोगों को इतना तक कह दिया की श्मशान में ही क्यों नहीं? टेंट लगाकर आप लोगों को अन्य जानवरों की तरह जिस दिन मौत हो उस दिन भी खाना खिला दें।कुत्ते, गिद्दों की तरह । आप भी उनकी तरह भोजन करके उनकी तरह अगले जन्म में कुते व गिद्द ही बनोगे। 

ऐसे दुखी और गमगीन माहौल में ,आपको पंगत से खाना खाने में शर्म महसूस नहीं होती है।

जिस आंगन में पुत्र शोक में, बिलख  रही है माता। वहां पहुंचकर स्वाद पीना, तुमको कैस भाता। पति के वियोग में जब व्याकुल,  विधवा रोती। तुम्हें बड़े चाव से पंगत खाते, तुमको पीर नहीं होती। चला गया संसार छोड़कर, जिसका पालनहारा। पड़ा जो चेतनाहीन,  वहां ब्रज पात दे मारा। खुद भूखे रहकर भी, परिजन तुम्हें खिलाते हैं। इस अंधी परंपरा के पीछे, जीते जी मर जाते हैं । इस कुरीति के उन्मूलन का साहस दिखलाओ ,सच्चा धर्म यही कहता बंधु, मृत्यु भोज मत खाओ। इस कुरीति को समाज से हमेशा के लिए मिटाने के लिए हमें कुछ सकारात्मक प्रयास भी करने होंगे। उसके लिए मेरे विचार से तीन चार बातें बहुत महत्वपूर्ण है।

(1)सामाजिक समारोह में, सामाजिक सम्मेलनों में, समाज की मिटिगो में , ऐसे परिवारों के मुखिया को सम्मानित किया जाए जिन्होंने मृत्यु भोज नहीं किया है, और ना ही किसी मृत्यु भोज में शामिल होते हैं।

(2)मृत्यू भोज नहीं करने वाले परिवारों के बच्चों को, सामाजिक भामाशाह दानदाताओं द्वारा चैरिटी ट्रस्ट बनाकर, उनकी शिक्षा और दीक्षा की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। ताकि उन्हें लगे कि समाज हमारे साथ है।

(3)समाज के छात्रावासों में, समाज के विद्यालयों मे, ऐसे परिवारों के बच्चों के प्रवेश को प्राथमिकता देनी चाहिए।

(4)सामाजिक संगठनों, सामाजिक ट्रस्टो में, मंदिरों की समितियों आदि में ऐसे परिवारों के मुखियाओ को ही दायित्व देकर विभिन्न कार्यों में उनका सहयोग लेना चाहिए।

(5)समाज के जनप्रतिनिधि सरपंच, C.R, D.R.  एमएलए, एम पी, आदि भी अपनी तरफ से पहल करते हुए इनको अपने परिवारों से शुरुआत कर के समाज को प्ररेणा दे सकते हैं ,और दूसरे लोगों को भी कहने का हक प्राप्त कर सकते हैं।

इस प्रकार यह सामाजिक कुरीति, समाज के प्रयासों से,एक दिन निश्चित रूप से दूर होगी। बस आवश्यकता है हम सबको सकारात्मकता के साथ, पूर्ण रुचि के साथ, एक दूसरे की टांग खिंचाई नहीं करनी है। बल्कि एक-दूसरे का हाथ खींचना है। सहयोग करना है। हौसला बढ़ाना है, उनको सम्मान देना है, उनका सम्बलन करना है। ऐसे प्रयासों से निश्चित ही इस सामाजिक कंलक को  हम दूर करने में सफल होंगे।

 


हंसराज"हंस"

 



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