स्वर्ण की जंजीर बांधे,
स्वान फिर भी स्वान है ।
धूल धूषित सिंहिनी ,
पाती सदा सम्मान है।
आत्मनिर्भर स्वाभिमानी ,
शौर्य ही पहचान है ।
हार ना स्वीकारती ,
जाती भले ही जान है।
मान खातिर प्राण देती ,
सहती न वह अपमान है।
वीरता ही धर्म उसका ,
शौर्य ही ईमान है ।
शत्रु भय से वह कभी ,
होती नही हैरान है।
परिभाषा उसी से शौर्य की ,
सच सिंहिनी महान है ।
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