दोहों में गुरुवर-वंदना


प्रखर रूप मन भा रहा,दिव्य और अभिराम।
हे ! गुरुवर तुम हो सदा,लिए विविध आयाम।।

गुरुवर तुम हो चेतना,हो विवेक-अवतार।
अंधकार का तुम सदा,करते हो संहार।।

जीवन का तुम सार हो,दिनकर का हो रूप।
बिखराते नव रोशनी,मानवता की धूप।।

सत्य,न्याय,सद्कर्म हो,गुरुवर हो तुम ताप।
काम,क्रोध,मद,लोभ हर,धो देते संताप।।

गुरुवर तुम तो दृष्टि हो,भटके को हो नूर।
ज्ञान अपरिमित संग है,शील लिए भरपूर।।

त्याग,प्रेम,अनुराग है,धैर्य,सरलता संग।
खिलें आपसे नित्य ही,नवजीवन के रंग।।

है सामाजिक जागरण,सरोकार,अनुबंध।
कभी न टूटें आपसे,कर्मठता के बंध।।

सुर,लय हो,तुम ताल हो,तानसेन की तान।
गुरुवर तुम तो शिष्य का,हो नित ही यशगान।।

मधुर नेह हो,प्रीति हो,हो अंतर के भाव।
गुरुवर तुमसे शिष्य को,किंचित नहीं अभाव।।

वंदन,अभिनंदन सतत,हे ! गुरुवर है नित्य।
तुम हो खिलती चाँदनी,दमक रहा आदित्य।।













   शरद नारायण खरे
          मंडला 

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