(पुस्तक समीक्षा) वैज्ञानिक युग में भावुकता का घर-बार बनाते गीतकार श्री राजेन्द्र राजन


सुप्रसिद्ध गीतकार/कवि श्री नीरज जी ने एक साक्षात्कार में बड़े दुख के साथ कहा था-'कवि मंच' तो आजकल 'कपि मंच' हो गए हैं। उनका इशारा आज के कवि-सम्मलेन के गिरते स्तर की ओर था। अख़बारों की सुर्ख़ियों से लेकर द्विअर्थीय हास्य व्यंग्य, चुटकुलेबाज़ी से लेकर संचालक महोदय और कवयित्री के बीच होती अश्लील छेड़छाड़...कवि-सम्मेलनों के स्तर को कहाँ से कहाँ ले आई है, यह आज किसी से छिपा नहीं है। ऐसे परिवेश में यदि कोई कवि अपने गीतों से मंत्रमुग्ध-सा कर, अपने सृजन के बलबूते पर श्रोताओं से लोहा मनवा ले तो मरुथल में एक ताज़ी ठण्डी बयार/फ़ुहार का आनन्द भीतर तक शीतलता देता है। हमें प्रसन्नता है कि हम आज आपको ऐसे ही एक गीतकार श्री राजेन्द्र 'राजन' जी से रु-ब-रु कराने जा रहे हैं जो पिछले कई बरसों से लालकिला, दूरदर्शन और तमाम कवि-सम्मेलनों में अपनी एक अलग विशिष्ट पहचान बना चुके हैं।

राजन जी को गीत गाते सुनते वक़्त पंत जी की स्मृति लिए यह पंक्तियाँ साकार हो उठती हैं-'वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान/निकलकर नयनों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान'। न केवल उनके गीतों में बल्कि उनके गायन में एक अजीब-सी पीड़ा है जो आपको उनसे भीतर तक ऐसे जोड़ देती है कि उनके शब्द, उनकी सम्वेदना, उनकी पीड़ा कब आपकी अपनी हो उठती है, आपको पता ही नहीं चलता और आप देर तक उसमें डूबे रह जाते हैं। ईश्वर लेखन के साथ-साथ अच्छा कंठ और सम्वेदना भी दे तो सोने में सुहागा हो जाता है। उनके गीत कोयल का सुर लिए पपीहे की रटन हैं। चुप और संकोची-से दिखने वाले राजन जी जब माइक के सामने परत-दर-परत खुलते चले जाते हैं तो मन में यही विचार आता है कि हे दाता, क्या सारे ज़माने का दुख तूने सिर्फ़ इन कवियों के नाम ही लिखा है! कवि अपना दुख नहीं गाता, वो तो ज़माने का दुख और उसकी पीड़ा ही गाता है, मानो वो प्रतिनिधि हो इस ज़माने का-इस युग का-इस कालखण्ड का! वो मंच पर सिर्फ़ गीत पढ़कर चले जाने वाले कवि नहीं हैं बल्कि वो अपने गीतों/मुक्तकों से श्रोताओं के दिलों में अपनी एक विशिष्ट पैठ बना लेते हैं। उसके बाद कितने ही बरसों बाद तक आप उनकी पंक्तियाँ गुनगुनाकर उन्हें स्मरण करते रहेंगे।

राजन जी की विराटता को उनके शब्दों में सहजता से समझा जा सकता है जब वो कहते हैं-'केवल दो गीत लिखे मैंने-इक गीत तुम्हारे मिलने का, इक गीत तुम्हारे खोने का...'। यही तो उनकी जीवन भर की गहन तपस्या का फल है। इन दो गीतों को लिखने में, इनमें वसंत भरने की चाह में सड़कों-सड़कों, शहरों-शहरों, नदियों-नदियों, लहरों-लहरों भटकते हुए उन्होंने क्या कुछ नहीं झेला है, उन्हीं के शब्दों में-'मैं रात-रात भर जगा तुम्हें भुलाने के लिए/मैं पात-पात झर गया, बसंत लाने के लिए...'। इस यात्रा-क्रम में कितने ही विश्वाश टूटे और न जाने कितने ही साथी छूट गए पर वो इस मरुथल जैसे जीवन में दो रंग साथ लिए अनवरत चलते रहे-'एक रंग तुम्हारे हँसने का, इक रंग तुम्हारे रोने का', यानि कि आरम्भ से इति तक अथ श्री प्रेम की ही कथा, कथा है ये प्रेम की, निज प्रेम की विश्व प्रेम की...सच में राजन जी मूलतः प्रेम के ही कवि हैं और मूल रूप से उन्हें प्रेम के गीतकार की प्रसिद्धि हाँसिल है।

प्रेम जीवन का मूल तत्त्व है, जीवन का सार है। सारी प्रकृति प्रेममय है। इसलिए कहा भी गया है-'लव इज गॉड एंड गॉड इज लव', अर्थात् प्रेम ईश्वर है और ईश्वर प्रेम है। इसी प्रेम के सागर के नायाब मोती हैं राजन जी के गीत, जिन्हें पढ़कर आपको आनन्द आएगा परन्तु सुनने के बाद तो यह आपके हृदय में ऐसे उतरेंगे कि आपके हृदय में सदा-सदा के लिए अपनी सीट 'कन्फर्म रिजर्व' करा लेंगे।

आज हम उनके गीत-संग्रह 'ख़ुशबू प्यार करती है' के साथ आपके समक्ष उपस्थित हैं। यद्यपि उन्होंने बड़ी सावधानी से काँटे बचाकर सलीके से महकते गुलाबों का यह गुलदस्ता बनाया है पर फ़िर भी काँटों का अहसास हो ही जाता है। उनके शब्दों के पीछे छिपे दर्द और सम्वेदना मुखर हो उठते हैं। उनके गीतों में प्रेम का विछोह है, पीड़ा है, टीस है, व्यथा है, सुधा है, आशा है, प्रत्याशा है...। प्रस्तुत गीत-संग्रह 'ख़ुशबू प्यार करती है' में रिश्तों की ख़ुशबू है, वतन की माटी की ख़ुशबू है, रोजमर्रा के जीवन की जद्दोजहद करते आम आदमी के पसीने की ख़ुशबू है, वर्षा के बाद धरती से उठने वाली माटी की सौंधी ख़ुशबू है, प्यार की ख़ुशबू है, तकरार की ख़ुशबू है, मनुहार की ख़ुशबू है, अभिसार की ख़ुशबू है, चन्दन की ख़ुशबू है, पावन मन की ख़ुशबू है, रेशमी बालों की ख़ुशबू है, सुरमुई ख़यालों की ख़ुशबू है...। उनके गीतों से गुज़रते हुए हम इन तमाम ख़ुश्बुओं से अपने को सराबोर पाते हैं पर उन्हें छू नहीं सकते, जैसा कि ख़ुद राजन जी का एक शेर है-'ख़ुश्बुओं का तन नहीं होता मुझे मालूम था, फ़िर भी तुझको रोज़ मैं छूने की ज़िद करता रहा'।

गीतों के उपवन में भीनी-भीनी ख़ुशबू से रु-ब-रु कराने हेतु वो निमंत्रण देते हैं-'चले आओ बहारों में हवाओं का निमंत्रण है, नशीली रात में पावन गुनाहों का निमंत्रण है...', लेकिन आगाह करते हुए यह भी कहते हैं कि 'ये ख़ुशबू प्यार करती है, ये ख़ुशबू रूठती भी है/इसे तुम छू न पाओगे नुकीली उँगलियों वालों!/न बन्दी कर सकोगे तुम ओ कारागार के तालों!/घिनौनी हरकतें हों तो ये ख़ुशबू कूटती भी है...'।

इस जीवन के कटु यथार्थ पर दो गीतों की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-'मरने के अवसर हैं पल-पल, जीने के आसार नहीं हैं/सबसे ज़्यादा दुखिया जीवन, यदि जीवन में प्यार नहीं है..कौन यहाँ कब तक के साथी, कुछ भी तो आधार नहीं है...कसमें-वादे, घुटन यहाँ पर, ज्यौं कमरे का एक झरोखा/तड़पन-सिहरन औ' आलिंगन लगता है जैसे कोई धोखा/वैज्ञानिक युग में भावुकता का कोई घर-बार नहीं है...' और 'विश्वास करने वाले विश्वास तोड़ देंगे/कुछ दूर तक चलेंगे, फ़िर साथ छोड़ देंगे/...अनुकूलता है जब तक, रिश्ता बना रहेगा/शर्तों के दायरे में मन अनमना रहेगा/...शीशा भी काट डालें हीरे मिलेंगे ऐसे/मन तो बहुत सरल है उनसे बचेगा कैसे? पूजा को हर क़दम पर बस ठोकरें मिलेंगी/हट भावना की कलियाँ क्या फूल बन खिलेंगी? सपने सुहावने-से तन को झिंझोड़ देंगे/कुछ दूर तक दिखेंगे, फ़िर साथ छोड़ देंगे'। 

प्रेम पर इन पंक्तियाँ की पवित्रता दृष्टव्य है-'दो इकाई-इकाई गुणा हो गईं, धीरे-धीरे निलम्बित हुईं दूरियाँ/एक भी मेघ आकाश में था ही नहीं, किन्तु महसूस होती रही बिजलियाँ/थी अँधेरी भरी रात छाई मगर, मैं दिवाली मनाता रहा रात भर'।

आज के इस महँगाई की मार से त्रस्त आम आदमी की पीड़ा का चित्र देखिए-'वेतन से दुगुने ख़र्च रोज़, चल पाता हूँ गिरता-झुकता/साँसों का कैसा क़र्ज़ जहाँ तन भी चुकता, मन भी चुकता/बच्चों की फ़ीसों का प्रबन्ध, रोटी-पानी की जोड़-तोड़/जीवन है केवल समझौता, सबके अहसासों का निचोड़/हर पल समाज को ललकारा, पर सुरसा-सी महँगाई से/मैं रहता हूँ भयभीत, सखे! क्या लिख पाऊँगा गीत, सखे!'

आम आदमी की क़िस्मत में तो बस चक्की में पिसना लिखा है-'हो देवता कोई भी हम आरती रहे हैं, विष को सुधा समझकर, चुपचाप पी रहे हैं/...दिल कौन है कि जिसमें, अरमां नहीं भरे हैं/एक ज़िन्दगी की खातिर, सौ बार हम मरे हैं/कोई चाँदनी को तरसे, कोई आँगना को तरसे/तरसे कोई हृदय को, कोई भावना को तरसे/अपनी जगह अधूरे, सब लोग जी रहे हैं/विष को सुधा समझकर, चुपचाप पी रहे हैं'।

एक गीतकार/कवि/शायर की पीड़ा पर गीतों की यह पंक्तियाँ देखिए-'तुम जिसे हो गीत कहते, वह सुलगती बेबसी है,/विविध मंचों पर हृदय की पीर गाता फिर रहा हूँ...', और 'शायर को जीवन भर आँसू को गाना है/जग ने कब समझा है, जग ने कब जाना है...', वो जानते हैं-'जितना ज़्यादा आँखें रोई उतना ही हम मशहूर हुए…', और 'हम पीड़ा के सौदागर हैं, आँसू के हम हैं व्यापारी। जिन लोगों ने हमें उछाला, हम उन सबके भी आभारी।।

कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर स्थानाभाव की वजह से इस चर्चा को यहीं पर समेटते हुए हम श्री राजेन्द्र राजन जी को इस गीत-संग्रह के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देते हुए, उनकी इन पंक्तियों के साथ अपनी बात को विराम देते हैं-

समय ना बीत जाए प्यार का भरपूर सुख ले लो

मगर विश्वास से जाने-अजाने मत कहीं खेलो

सभी पल ज़िन्दगी के तो सदा उत्तम नहीं होंगे

कभी हम-तुम नहीं होंगे कभी मौसम नहीं होंगे


डॉ. सारिका मुकेश


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