मौलिक कर्तव्य बनाम मौलिक अधिकार

मौलिक अधिकार राज्य के अपने नागरिकों के प्रति कर्तव्यों को दर्शाता है वहीं मौलिक कर्तव्य राज्य के नागरिकों से यह अपेक्षा करता है कि वे भी राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाएंगे. प्रसिद्ध आदर्शवादी पाश्चात्य विचारक टीएच ग्रीन का कहना था, ‘अधिकार और कर्तव्य एक सिक्के के दो पहलू हैं'।

अधिकारों का कोई महत्व नहीं रह जाता जब हम केवल कुछ पाना चाहते हैं और अपने कर्तव्यों को नहीं निभाते. भारतीय संस्कृति भी कर्तव्य पालन पर जोर देती रही है. गीता में कहा गया है ‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते ’ अर्थात कर्म में ही व्यक्ति का अधिकार है।
26 नवंबर 2019 को भारतीय संविधान को अंगीकार किये जाने की 70वीं वर्षगांठ पर संसद के संयुक्त अधिवेशन में सांसदों को संबोधित करते हुए भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी इस बात पर जोर दिया कि अधिकार और कर्तव्य एक दूसरे से बड़ी गहराई से जुड़े हुए हैं।
         जैसे यदि भारत का संविधान सभी नागरिकों को भाव अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है तो उन पर ये कर्तव्य भी अपेक्षित करता है कि वे सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान न पहुंचाएं और हिंसा के कार्यों से दूर रहें. यदि कोई अन्य नागरिक उन्हें हिंसा और तोड़फोड़ से रोकता है तो वह एक कर्तव्यपरायण नागरिक है. जब एक नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करता है तो वे परिस्थितियां स्वयं उत्पन्न होती हैं जहां उसके और अन्य नागरिकों के अधिकारों का संरक्षण हो सके।
संविधान में उल्लिखित ये मूल कर्तव्य नागरिकों के आचार और व्यवहार के कुछ नियम तय करते हैं. वैसे ये प्रावधान कानूनी नहीं हैं, ये केवल व्यक्ति के नैतिक दायित्व हैं परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने एक नागरिक को अपने कर्तव्य के उचित पालन के लिए सक्षम बनाने को लेकर राज्य को इस संबंध में निर्देश जारी किये हैं.
वर्मा समिति और मौलिक कर्तव्य सर्वोच्च न्यायालय ने मई 1998 में भारत सरकार को एक अधिसूचना जारी की कि राज्य का कर्तव्य है कि वह मौलिक कर्तव्य के बारे में जनता को शिक्षित करें ताकि अधिकार तथा कर्तव्य के मध्य संतुलन बन सके. इस अधिसूचना के बाद भारत सरकार ने जस्टिस जेएस वर्मा समिति का गठन किया जिसके प्रमुख कार्यों में यह था कि समिति प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक एवं विश्व विद्यालय के स्तर पर मौलिक कर्तव्य की शिक्षा के लिए विषय वस्तु विकसित करें।
    वर्मा समिति ने पाया कि देश में मौलिक कर्तव्यों के प्रति जन सामान्य में जागरूकता की कमी है. समिति ने मूल कर्तव्यों के क्रियान्वयन के लिए कानूनी प्रावधानों को लागू करने की सिफारिश की।
        वैसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक अवसरों पर कहा है कि मौलिक कर्तव्यों के पालन के लिए रणनीति बनाना कार्यपालिका या सरकार का दायित्व है. सरकारें इस दिशा में समय-समय पर कानून भी बनाती रही हैं जो वन संपदा के अनुचित दोहन, राष्ट्रीय अखंडता, राष्ट्र गान, राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान करने, स्त्रियों के प्रति हिंसा और अपराध, बालकों की शिक्षा आदि के संबंध में हैं।
         वकुछ समय पहले ही उत्तर प्रदेश की सरकार ने कुछ कठोर कानून बनाए हैं जो दंगों आदि की परिस्थिति में सार्वजनिक संपत्ति और वाहनों को नुकसान पहुंचाने पर उनकी भरपाई से संबंधित हैं. कई कानूनों पर विवाद भी उठते रहे हैं।लेकिन यदि समग्र रूप में देखा जाए तो नैतिक और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा राज्य द्वारा कठोर कानूनों को बनाने मात्र से नहीं होती बल्कि अपने नागरिकों को ऐसी परिस्थितियां उपलब्ध करवाने से होती है जिनमें इन गुणों का स्वतः विकास हो सके।चेतना-जाग्रति का यह काम शिक्षा द्वारा किया जा सकता है।शिक्षा ऐसी हो जो विद्यार्थियों में मानवीय गुणों, नैतिक और संवैधानिक मूल्यों का संचार करे।उनका समग्र विकास करके उन्हें सच्चे अर्थों में मानव बनाए. हमारी नई शिक्षा नीति सर्वांगीण विकास की इसी अवधारणा पर आधारित है।हम इन लक्ष्यों को कितना और कैसे प्राप्त करेंगे यह तो इसका सही समय पर सही क्रियान्वयन ही बताएगा।

--प्रो(डॉ)शरद नारायण खरे
                          प्राचार्य
   शासकीय जेएमसी महिला महाविद्यालय
               मंडला(मप्र)-481661
                (9425484382)















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