महिलाओं की सफलताओं की कहानियों में एक कहानी कल्पना सरोज की आती है जो ना एक कहानी महसूस होती है बल्कि सपने के सच होने जैसी लगती है। ये एक ऐसी शख्सियत है, जिसने ना केवल पिछड़े वर्ग से होते हुए अपितु प्रताड़ना सहते हुए भी बुलंदियों को छुने का साहस दिखाया, गर्व है ऐसी देश की बेटी पर। 8 अक्तूबर 2017 को इंडिया न्यूज़ पर एक इंटरव्यू आता है जिसमें एक दलित पिछड़े वर्ग से संबंध रखने वाली जन्म से ही अनेक कठिनाइयों का आघात सहने वाली समाज से उपेक्षित बाल-विवाह और ससुराल के अत्याचारों से पिड़ित, कल्पना सरोज को दिखाया गया। जिसकी कहानी सुनकर कोई भी चौंक जाए। थाने में एक हवलदार की नौकरी करने वाले घर में सबसे छोटी बेटी कल्पना बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में होशियार होने के बावजूद भी शिक्षकों और सहपाठियों की उपेक्षा का पात्र बनी, घर में गरीबी के कारण 12 सर की उम्र में ही अपने से 10 साल बड़े आदमी से उसकी शादी कर दी गई। लेकिन सुख शायद कल्पना से कोसों दूर था, छोटी-छोटी गलतियों पर ससुराल में मार- पीट रोज़ का काम था। शरीर पर अनेकों ज़ख़्म ज़िन्दगी से हताश भाग कर घर वापिस आ गई, ससुराल से आने की वजह से पंचायत ने मां- बाप का हुक्का-पानी बंद कर दिया, कल्पना को सभी रास्ते बंद नज़र आए, खुदकुशी करने की कोशिश की मगर कुदरत ने साथ छोड़ दिया नहीं सुनी फरियाद, और वापिस हिम्मत बंध कर उठ खड़ी हुई और पहुंच गई मुम्बई, एक नए सिरे से ज़िन्दगी जीने के लिए।इस समय वह केवल 16 साल की थी, सिलाई का काम जानने की वजह से एक गारमेंट कम्पनी में दो रूपए रोज की नौकरी की जो पर्याप्त नहीं थी तो निजी तौर पर ब्लाउज बनाने का काम शुरू किया जिससे कुछ अच्छे पैसे मिलने लगे और गुज़ारा चल निकला, इसी बीच कल्पना की बहन की इलाज की कमी से मृत्यु हो गई जिसका उसे बहुत बड़ा आघात पहुंचा, कल्पना ने और ज्यादा मेहनत करनी शूरू की, दिन में 16घण्टे काम किया, और घर पर भी मदद भेजने लगी। बचत के पैसों से फर्नीचर स्टोर खोला जिसका बहुत अच्छा रिस्पॉन्स मिला, दलितों को मिलने वाला लोन लेकर मशीन खरीदी और बुटीक शाप खोला और साथ ही साथ ब्यूटी पार्लर भी खोला साथ रहने वाली लड़कियों को पार्लर का काम सिखाया, दोबारा शादी की मगर पति का साथ अधिक समय तक नहीं रहा दो बच्चों की जिम्मेदारी कल्पना पर छोड़ कर बीमारी के कारण देहान्त हो गया । 1988 से बंद पड़ी *कमानी ट्यूबस कम्पनी जिसे कोर्ट ने वर्कर्स को फिर से शुरू करने के आदेश दिए, वर्कर्स कल्पना के पास मदद के लिए आए और जानकारी ना होते हुए भी वर्कर्स की मदद से और अपनी लगन से उस ध्वस्त कम्पनी में फिर से प्राण फूंक दिए। कल्पना की मेहनत और संघर्ष के लोग मुरीद हो गए, और कल्पना को एक पहचान मिली। कल्पना ने पिछड़े, आदिवासी, बुजुर्गो और कमज़ोर एंव बच्चों के लिए बहुत कुछ किया ।
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