विवाह

भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन एवं अनेको विदेशी विद्वानों ने भारतीय संस्कृति की भूरी-भूरी प्रसंशा की।

 विश्व विख्यात कला-समीक्षक हेवल के अनुसार," प्राचीन हो या आधुनिक किसी भी दूसरे राष्ट्र ने संस्कृति का इतना उच्च निर्माण नहीं किया, कोई भी धर्म जीवन दर्शन बनाने में इतना सफल नहीं हुआ, कोई भी मानवीय ज्ञान इतना समृद्ध, शक्तिशाली नहीं हुआ जितना भारत में हुआ"।
जर्मनी विद्वान मैक्समूलर के अनुसार," भारत देश में मानव मस्तिष्क ने सुक्ष्यत्म शक्तियों का विकास किया, जीवन के बड़े से बड़े प्रश्नों पर विचार किया एवं ज्ञान, दर्शन और साहित्य से ना केवल अपने देश के निवासियों को प्रेरित किया अपितु विदेशी विद्वानों को भी प्रभावित किया ।
विवाह अर्थात शादी या वैडिंग जिसका अर्थ दो विषम  लिंगी व्यक्तियों में यौन संबंध स्थापित करने की समाज द्वारा स्वीकृत विधि। विवाह का आधार मानव की जन्मजात जैविक यौन भावना की संतुष्टि है एवं विवाह इस भावना की संतुष्टि की समाज द्वारा स्वीकृति है। इस तरह से विवाह को  एक सामाजिक सार्वभौमिक संस्था कह सकते हैं। सार्वभौमिक इसलिए क्योंकि  विवाह के अलग-अलग रूप होते हुए भी विश्व के सभी समाजों में विवाह प्रथा का प्रचलन है।
यह समाज का निर्माण करने वाली परिवार नामक  सबसे छोटी इकाई है, मानव प्रजाति को बनाए रखने का जीवशास्त्री माध्यम भी है।
गिलिन तथा गिलन के अनुसार भी विवाह सामाजिक सहमति द्वारा प्रजनन क्रिया की विधि है।
  हैवलाक  एलिस भी इसे दो व्यक्तियों की यौन  संबंध और सामाजिक सहानुभूति के बंधन से एक -दूसरे के साथ संबंधित हो और यदि संभव हो तो यह अनिश्चित काल तक संबंध बना रहे।
लावी के अनुसार जो इन्द्रीय संबंधी संतोष के बाद स्थिर रहता है, उस स्वीकृत संगठन को विवाह कहते हैं।
जेम्स के अनुसार विवाह समाज की एक ऐसी क्रिया है जो  यौन संबंध, ग्रह संबंध, प्रेम एवं मानव स्तर पर व्यक्ति के जैवकीय, मनोवैज्ञानिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास की आवश्यकताओं को पूरि करता है।
विवाह का प्रमुख उद्देश्य-- 
 यौन इच्छा पूर्ति करना,
सन्तानोत्पत्ति करना,
वैधता प्रदान करना,
उत्पन्न संतान का पालन-पोषण करना, 
वंश को आगे बढ़ाना,
 आर्थिक हितों में भागीदारी करना है।
अगर संतानोत्पत्ति नहीं होती तो संसार की निरंतरता खत्म हो जाती।
हर मनुष्य की भूख, प्यास, स्वान इत्यादि कुछ जैविक आवश्यकताएं होती हैं, जिनकी पूर्ति आवश्यक है, जिसके अभाव में मनुष्य जीवन दुर्लभ है, शारीरिक सुरक्षा एवं उदरपूर्ति के लिए सहयोग आवश्यक है। इसी तरह यौन इच्छा भी मानव की एक महत्वपूर्ण जैविक आवश्यकता है। यौन-तृप्ति के बिना इंसान जिंदा तो रहता है मगर उसका स्वभाविक विकास संभव नहीं। यदि व्यक्ति स्वतंत्र तथा अनियमित रूप से यौन इच्छा की संतुष्टि करने लगे तो समाज में अनैतिकता बढ़ेगी, इस तरह से विवाह समाज की रक्षा करता है एवं कई प्रतिबंधो एवं नियमों के साथ व्यक्ति को यौन संतुष्टि का अधिकार प्रदान करता है। बिना यौन संबंधों के सन्तान उत्पन्न संभव नहीं अर्थात जनसंख्या की निरन्तरता संभव नहीं।
जिस तरह भोजन के बिना मानव जीवन संभव नहीं उसी तरह यौन संबंध बिना समाज का जीवन संभव नहीं। समाज के अस्तित्व के लिए शांति, व्यवस्था और संगठन ज़रूरी है, जो किसी सीमा तक समाज में यौन और अन्य ऐसे संबंधों को निश्चित, नियमित और नियंत्रित करने से होगा।
 व्यक्ति का हित समाज के हित में और समाज का हित व्यक्ति के हित में निश्चित है। अगर दोनों हितों में सामंजस्य ना हो तो ना व्यक्ति का जीवन सुरक्षित है,ना ही समाज का।
 विवाह दो विषम लिंगी व्यक्तियों में संबंधों को स्थाई बनाता है। इस स्थायित्व से अवैध संतानों और स्त्री जाति के चारित्रिक समस्या का समाधान निकलता है।
हरिदत्त वेदानलंकार के अनुसार," विवाह द्वारा उत्पन्न संतान परिवार के आचार-विचार, रीति-रिवाज, धार्मिक तथा नैतिक विश्वास और आदर्शों से परिचित होती है। इस तरह नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से संस्कार ग्रहण करती है। अर्थात हर समाज में विवाह का मुख्य उद्देश्य संतान उत्पन्न करना और यौन-तृप्ति है। यदि व्यक्ति परिवार का निर्माण नहीं करता तो कभी -कभी उसका जीवन साधारण, अकेला और अनुत्तरदायी होता है।
 विवाह व्यक्ति को मान्यता प्राप्त तरीके से परिवार निर्माण का अवसर देता है और समाज में ऊंची स्थिति प्रदान‌ करता है। आर्थिक सहयोग भी विवाह का एक कारण माना जाता है।
मूलतः विवाह एक धार्मिक संस्कार है और  जिसमें संबंध विच्छेद कहीं भी नहीं दर्शाया गया।
मगर आज के समय में विवाह एक उत्सव बन कर रह गया है, कहीं पर दहेज का लालच है और कहीं  विवाह विच्छेद अर्थात विवाह किया, सामंजस्य ना हुआ तो संबंध विच्छेदन पलों में हो जाता है, लेकिन हिन्दू शास्त्रों में विवाह ईश्वर द्वारा पूर्वनिश्चित है इसलिए इसे तोड़ने का अधिकार मनुष्य को नहीं है, किन्तु इसका पालन किसी भी युग में नहीं किया गया।
स्मृतिकारों एवं शास्त्रकारों ने इसे बेशक बढ़ावा नहीं दिया, मगर विशेष परिस्थितियों में इसकी अनुमति अवश्य प्रदान की है।
 कोटिल्य के अनुसार भी यदि पति-पत्नी एक-दूसरे से शत्रुता एवं घृणा करते हैं तो ऐसे में संबंध विच्छेद ही सही है।  शेष सभी धर्मों के अपने-अपने कायदे-कानून हैं।













          प्रेम बजाज  
       ( यमुनानगर )

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