चार धूर्त विद्वान् भाई
विद्वान् और वह भी धूर्त हो तो समझलो वे अपनी चालाकी से किसी को भी ठग सकते हैं।
    चार सहोदर भाई कुछ पढ़े-लिखे थे। उनमें धूर्तता कूट-कूट कर भरी थी। इन चारों ने विद्वान् का लवादा ओढ़ रखा था। एक बार उन्होंने एक ब्राह्मण को ठगने की योजना बनाई। त्रिपुण्ड लगाये, यज्ञोपवीत धारण किये हुए एक ब्राह्मण पूजा-पाठ कराकर दूसरे गांव से अपने गांव जा रहा था। वह दान में मिले बकरे को अपने कंधे पर लिए जा रहा था। इन चार धूर्त विद्वानों ने अपना लक्ष्य बना लिया। आगे राह में जाकर एक विद्वान् भाई उस ब्राह्मण कोे मिला। उसने ब्राह्मण को अभिवादन कर कहा- अरे भाई! इस कुत्ते को कंधे पर क्यों लिए जा रहे हो, इसे कोई चोट-ओट लग गई है क्या? ब्राह्मण बोला- ये बकरा है तुम्हें दिखाई नहीं देता क्या? और आगे बढ़ गया।
    कुछ दूर चलने पर ब्राह्मण को दूसरा राहगीर मिला, उसने कहा अरे ब्राह्मण देवता! इस अपवित्र कुत्ता को अपने कंधे पर क्यों ढो रहे हो? ब्राह्मण को कुछ संदेह हुआ, उसने बकरे को कंधे से नीचे उतारा, उसे ठीक से देखा और बोला- ‘तुमने मुझे मूर्ख समझ रखा है क्या, बकरा को कुत्ता बताने से मैं तुम्हारी बातों में आ जाऊँगा क्या?’ उसने बकरे को उठाया और आगे बढ़ गया।
    आगे कुछ दूर ब्राह्मण चला ही था कि तीसरा राहगीर मिला। राहगीर ने ब्राह्मण को देखते ही कहा- ‘छि छि, वेशभूषा से तो तुम ब्राह्मण दिखते हो और कुत्ते जैसे अपवित्र पशु को अपने ऊपर लादे हुए हो।’ यह सुनकर ब्राह्मण को अधिक संदेह हुआ, वह सोचने लगा, दो राहगीर तो मिले हुए हो सकते हैं किन्तु तीसरा मिला हुआ नहीं हो सकता, उसने बकरा को नीचे उतारा, ठीक से देखा और थोड़ी देर वहीं रुक गया। जब बकरा को कुत्ता बताने वाला तीसरा राहगीर अपने रास्ते चला गया तब ब्राह्मण ने पुनः बकरे का निरीक्षण किया, आस्वस्त होने पर कंधे पर उठाया और चल दिया।
    अपने गंतव्य ग्राम की ओर कुछ दूरी पर चला ही था कि चौथा राहगीर मिला। इसने भी ब्राह्मण से वही बात कही जो पिछले तीन राहगीरों ने कही थी कि ‘तुम कुत्ते को अपने कंधे पर ढो रहे हो।’ इस बार ब्राह्मण को पूर्ण विश्वास हो गया कि जो वह कंधे पर लिये जा रहा है वह कुत्ता ही है। वह सोचता है कि ‘एक राहगीर गलत हो सकता है, दो मिले हुए हो सकते हैं, तीन भी किसी योजना को अंजाम दे सकते हैं, किन्तु अब तो जो मिल रहा है वही इसे कुत्ता बता रहा है, मैं ही गलत हूँ। यदि गांव वाले देखेंगे तो क्या कहेंगे।’ यह सोचकर उसने बकरे को कंधे से नीचे उतार कर छोड़ दिया और खाली हाथ ही अपने गांव चला गया। इधर ब्राह्मण के दृष्टि से ओझल होते ही राहगीर बने ये चारों धूर्त विद्वान् भाई उस बकरा को पकड़ कर ले गये।
    समाज में ऐसे धूर्त कभी भी अपना स्थान बना लेते हैं और कुछ लोगों की सहायता से संस्था आदि पर कब्जा जमां लेते हैं। फिर संस्था के धन को तो किसी न किसी प्रकार से हड़प ही लेते हैं, संस्था की विश्वसनीयता का लाभ उठाकर समाज को अनवरत ठगते रहते हैं। ऐसे लोगों से हमें पग पग पर सावधान रहना चाहिए।


 











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डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
           इन्दौर 

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