आम जीवन से बुना है इन कहानियों का ताना-बाना


जीवन और कहानी को पृथक नहीं किया जा सकता। प्रायः बच्चों को कहानी सुनना पसंद है तो बड़ों को कहानी सुनाना। हम चाहें या न चाहें मगर कहानियाँ हमारी जिंदगी का अभिन्न अंग हैं। हालाँकि इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि समय से कदमताल मिलाने में जितना जीवन बदला है, उतनी कहानियाँ भी बदली हैं। दंत कथाओं, पौराणिक कथाओं, चमत्कारिक कथाओं, काल्पनिक कथाओं और आदर्श कथाओं से होता हुआ यह सफ़र जीवन की जरूरत पर आया है। बढ़ती आर्थिक जरूरतों, टूटते पारिवारिक ढाँचे, नारियों की बदलती भूमिकाओं ने व्यक्तिवादी दृष्टिकोण को संबल प्रदान किया है। इस लुभावने संबल ने आत्मनिर्भरता को न केवल व्यापक एवं समृद्ध बनाया है बल्कि निजता एवं सुरक्षा की आहुति भी ली है। नारियों को बेशुमार समस्याओं से भी दो-चार किया है। मजबूर कर ममता और परम्परागत महानता को भी छीना है। समाज की इन्हीं समस्याओं से जूझती नारियों और नारी सुलभ क्रियाओं के आपसी द्वंद्व को पारखी नज़र से देखती हैं सुश्री मालती मिश्रा 'मयंती'। दिल से अनुभूत करती हैं तथा अपनी कुशल लेखनी से कथानक गढ़कर चतुर शिल्पी की तरह कहानी बुनती हैं।

'इंतजार' और 'अधूरी कसमें' कहानी संग्रह की लेखिका और 'अन्तर्ध्वनि' तथा 'मैं ही साँझ और भोर हूँ' कविता संग्रह की कवयित्री चौवालीस वसंत/पतझड़/पावस को अनुभूत कर चुकीं सुश्री मालती मिश्रा 'मयंती' साहित्य के क्षेत्र में बड़ा नाम है। इनकी कहानियाँ अपने आसपास के परिवेश में अक्सर घटित होने वाली घटनाओं से बनती हैं। लेखिका स्वयं कहानी की मुख्य या सहायक पात्र होती है। प्रायः इनकी कहानियों की विषय वस्तु नारी से जुड़ी रोज मर्रा की कड़वी घटनाओं को कल्पना की चासनी में डुबोकर परोसने से संबंधित है। व्यावहारिक धरातल पर यथार्थ को चित्रित करना मुख्य विशेषता है। प्रवाह और जिज्ञासा बनी रहे इसके लिए लेखिका अपने कवयित्री होने का भी भरपूर फायदा उठाती है। न केवल चिंतन अपितु सपनों का सहारा भी कहानी के विकास में सहायक है। इस तरह अतीत, वर्तमान और अनुमानित भविष्य भी कहानी को आम जन से जोड़ने में सहयोगी होता है।

ग्यारह कहानियों वाले इस संग्रह "वो खाली बेंच" की प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण कहानी वो खाली बेंच है जो अक्षय अदैहिक प्रेम की पराकाष्ठा को बयाँ करती है। यह स्वीकार करना कठिन है कि ऐसा प्रेम सहज ही मिलता है लेकिन जो सहज प्राप्त हो, वह उल्लेखनीय भी तो नहीं होता, यादगार भी नहीं। सरकारी स्कूलों की गिरती गुणवत्ता ने प्राइवेट स्कूलों को कुकुरमुत्ते की तरह उगने का अवसर दिया। परिणाम यह हुआ कि गुरु शिक्षक हो गए और शिक्षकों का सतत शोषण प्रारम्भ हो गया। अभिभावक भी शिक्षकों को दोषी अनायास ही मान लेते हैं। मोटा पैसा स्कूल प्रशासन लेता है और मानदेय लेकर शिक्षक दोनों तरफ से पिसता रहता है। शिक्षिकाओं की दशा और भी बदतर होती है। 'जिम्मेदार कौन' और 'पुरस्कार'... इसी कोटि की कहानियाँ हैं। 'माँ बिन मायका' कहानी उस यथार्थ पर आधारित है जो हर घर की समस्या है। 'आत्मग्लानि' का पश्चाताप करने में पत्नी ने पति का साथ निभाकर अर्धांगिनी होने का पूरा दायित्व निभाया। 'सौतेली' शब्द समाज का अधम अपमानित शब्द है जिसमें फँसकर रिश्ता सदैव हाशिए पर होता है। बार-बार परीक्षा देकर साबित करना पड़ता है। पिता एक ऐसा रिश्ता है जो हर प्रतिकूलता में भी पुत्र के हित के लिए चिंतनशील रहता है...व्यग्र रहता है। अंध विश्वास पर आधारित कहानी 'डायन' है तो पुनर्जन्म को मानने की ओर उन्मुख करती है 'पुनर्जन्म' कहानी। 'चाय का ढाबा' कहानी बालश्रम पर केन्द्रित है तो 'चाय पर चर्चा' में चाय के आपसी फायदे और शारीरिक नुकसान पर चर्चा की गई है।

कोई भी सफल कहानीकार देश, काल और वातावरण को ध्यान में रखकर कथा विन्यास बुनता है। कहानी का उद्देश्य पहले ही तय कर लेता है जिसे कहानी के अंत में प्राप्त करना होता है। भाषा एवं शैली भी पात्रानुरूप रखी जाती है तभी कहानी में जीवंतता आती है। सुश्री मालती मिश्रा 'मयंती' जी इन तकनीकों में कुशल हैं। इनकी कहानी प्रतिनिधि के दर्जे में रखी जा सकती है क्योंकि सम सामयिक मुद्दों को बड़ी संजीदगी एवं संयम से बिना किसी पूर्वाग्रह के प्रस्तुत करती हैं। समदर्शी प्रकाशन मेरठ ने पूरे मन से पुस्तक को तैयार किया है। हम पूर्णतः आशान्वित हैं कि 'वो खाली बेंच' नव कहानी की दिशा में प्रतिष्ठित हो सकेगी। 









    डॉ अवधेश कुमार अवध


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