श्राद्ध क्या है?

शास्त्रों के अनुसार जब हम पितृपक्ष में अपने पित्रों के निमित्त, अपनी सामर्थ्य अनुसार और श्रद्धा-पूर्वक जो श्राद्ध करते हैं, इससे हमारे मनोरथ पूरे होते हैं और घर-परिवार में सुख-समृद्धि आती है।

अश्विन मास में पड़ने वाला पितृपक्ष पुर्वजों के प्रति श्रद्धा का पर्व है।
कहते हैं  साल में एक समय ऐसा आता है कि जब पुर्वज स्वर्ग से उतरी कर पृथ्वी पर आते हैं।माना जाता है कि इस समय पुर्वज धरती पर सुक्ष्म रूप में निवास करते हैं एवं अपने संबंधियों से तर्पण व पिंडदान प्राप्त कर उन्हें सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। पितृपक्ष के इन सोलह दिनों का केवल धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक महत्व भी  है।
*पहले जानते हैं धार्मिक तथ्य*
जन्म एवं मृत्यु का अत्यन्त गूढ़ रहस्य है, जिस पर  ऋषियों और मुनियों ने वेदों में, उपनिषदों में, शास्त्रों में विस्तृत विचार किया है।
श्रीमद्भागवत में यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि जिसने जन्म लिया उसकी मृत्यु निश्चित है, और मृत्यु के पश्चात जन्म भी निश्चित है। अर्थात ये जन्म -मृत्यु का चक्र प्राकृतिक नियम है, लेकिन आत्मा अजर-अमर है, जो कभी नहीं मरती। और इस पुनः जन्म के आधार पर कर्मकाण्ड में श्राद्ध कर्म का विधान निर्मित है।
जब हम श्राद्ध करते हैं, अपने पुर्वजों के निमित्त कुछ भोजन, वस्त्र  इत्यादि दान करते हैं तो क्या ये उन तक पहुंचता है?
अगर पहुंचता है तो कैसे? 
जबकि हमें ये तो पता नहीं कि हमारे पूर्वज किस योनि में है, शास्त्रों के अनुसार जीवन काल में भगवान ने 84 लाख योनियां बनाई है, हमारे पुर्वज किस योनि में है, जब हम जानते नहीं तो हमारा तर्पण कैसे उन तक पहुंच रहा है। क्या ब्राह्मण या कौवे या गाय का खिलाया हुआ हमारा भोजन उन तक पहुंच रहा है?
इन प्रश्नों का किसी के पास कोई उत्तर नहीं, लेकिन दुनियां में ऐसी बहुत स बातें हैं, जिनका प्रमाण ना मिलने पर भी हम उन पर विश्वास करते हैं।
जिस तरह हम जन्म से पूर्व और जन्म के समय के संस्कार स्थूल शरीर के लिए करते हैं ,उसी तरह श्राद्ध भी सुक्ष्म शरीर के लिए वही कार्य करते हैं। यहां से दूसरे लोक में जाने और दूसरा शरीर प्राप्त करने में जीवात्मा की मदद करके मनुष्य अपना कर्तव्य पूरा करता है जिसे श्राद्ध कहते हैं जो कि श्रद्धा से बना है। श्राद्ध क्रिया को दो भागों में बांटा जाता है, एक प्रेत क्रिया और दूसरी पित्र क्रिया। ऐसा माना जाता है कि मृत व्यक्ति एक वर्ष में पित्र लोक में पहुंचता है। अतः सपिंडीकरण एक वर्ष के बाद होना चाहिए लेकिन अब एक वर्ष तक कोई इंतज़ार नहीं करता और छह महीने से भ घट कर यह क्रिया केवल 12 दिन तक यह गई है,  इसके लिए गरूण-पुराण का श्लोक आधार है:::::
"अनित्यात्कलिधर्माणांपुंसांचैवायुष: क्षयात्।
अस्थिरत्वाच्छरीरस्य द्वादशाहे प्रशस्यते।।"
अर्थात कलयुग में धर्म के अनित्य होने के कारण  पुरूषों की आयु क्षीणता और शरीर क्षण भंगुर होने से सपिंडीकरण 12वें दिन की जा सकती है।
शुभ कार्यों जैसे विधवा। इत्यादि में कुछ लोग कुछ विधियों को छोड़ देते हैं मगर श्राद्ध क्रिया में अनदेखी नहीं की जा सकती, क्योंकि श्राद्ध का मुख्य उद्देश्य परलोक की यात्रा की सुविधा करना है।
इसके साथ ही श्राद्ध पक्ष पित्रों के प्रति श्रद्धा के साथ जीवन में गौ-सेवा का भी बोध कराता है। शास्त्रों  के अनुसार गौ -माता में सभी देवी-देवताओं का वास माना है, इसलिए श्राद्ध के बाद गौ-ग्रास दिया जाता है,  इससे पित्तर तृप्त होते हैं, एवं कौए को भी भोजन परोसा जाता है, यह पर्व जीवों के प्रति कर्तव्य बोध कराता है।
माना जाता है कि पित्तरों को जितने भी व्यंजन परोसे जाए, मगर उनकी तृप्ति तुलसी दल से होती है, मान्यता है कि तृप्त होने पर पित्तर गरूड़ पर सवार होकर खुशी-खुशी विष्णु लोक में जाते हैं।
*अब श्राद्ध पक्ष का वैज्ञानिक तथ्य* 
श्राद्ध पक्ष के लिए बहुत से वैज्ञानिक तथ्य भी हैं।
क्या आप जानते हैं कि क्यों हमारे पुर्वज श्राद्ध पक्ष में कौओं के लिए खीर बनाने को कहते हैं?
क्यों पीपल और बरगद को सनातन धर्म में पुर्वजों की संज्ञा दी गई है?
ऐसा किसी भी शास्त्र में नहीं है कि आप यहां कौओं को तर्पण करेंगे या पंडितों को भर पेट खिलाएं तो वहां आपके पुर्वजों को प्रापत होगा। क्योंकि ये सब श्रीमद्भागवत गीता और विज्ञान के विरुद्ध माना जाता है।
अगर आप अपने बुजुर्गो की सेवा जीते-जी नहीं कर सकते तो मरणोपरांत इन ढकोसलों का कोई अर्थ नहीं रहता।
पीपल और बरगद के पेड़ का वैज्ञानिक तथ्य यह है कि क्या कभी किसी ने पीपल या बरगद का बीज बोया है या कभी देखा है?
इसका स्पष्ट जवाब यही होगा नहीं;
आप पीपल या बरगद की कलम जितना चाहे रोपने की कोशिश करें नहीं लगेगा।
क्योंकि पीपल या बरगद के उपयोगी वृक्षों को लगाने की प्रकृति ने अलग ही व्यवस्था की है।
इन दोनों वृक्षों के फल को कौआ खाता है और उसके पेट में बीज की प्रोसेसिंग होती है तब बीज उगने लायक होता है। उसके बाद जहां-जहा कौआ बीट करता है वहीं ये वृक्ष उगते हैं।
केवल पीपल ही एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो दिन-रात ऑक्सीजन छोड़ता है, ओर बरगद औषधीय गुणों से भरपूर है।
इस तरह इन दोनों वृक्षों का उगना कौओं के बिना संभव नहीं, अगर इनकी वृद्धि चाहिए तो हमें कौओं को बचाना होगा।
मादा कौआ भाद्रपद में अंडे देती है, और नवजात शिशु पैदा होता है। इस प्रकार इस नई पीढ़ी के बहुउपयोगी पक्षी को पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना आवश्यक है। इसलिए हमारे वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों ने कौओं के नवजात शिशुओं के लिए हर छत पर  पौष्टिक आहार की व्यवस्था कर दी, जिससे नवजात शिशुओं का पालन-पोषण हो।
इस तरह से हमारा यह श्राद्ध पर्व पूर्ण तरह से वैज्ञानिक, प्रकृति अनुकुल और पुर्वजों के पुण्य कर्म स्मरण करने के निमित्त एक अमुल्य आयोजन कहां जाएगा।













              प्रेम बजाज 
          (यमुनानगर)

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