दान से इस भव में यश, पर भव में सुख मिलता है

अनुग्रह की भावना अर्थात् स्वयं अपना और दूसरे के उपकार की भावना से धनादि द्रव्यों का त्याग दान है। दान देने से दाता को पुण्य संचय होता है यह स्वोपकार है तथा जिन्हें दान दिया जाता है उसके सम्यग्ज्ञान आदि की वृद्धि होती है यह पर का उपकार है। और दान की विधि विशेष, दान में दिया गया द्रव्यविशेष, दान दाता विशेष और दान ग्रहणकर्ता विशेष के कारण से दान में विशेषता आती है।

    सामान्य रूप से त्याग की आवश्यकता हर क्षेत्र में है। रोग की निवृत्ति के लिये, स्वास्थ्या की प्राप्ति के लिए, जीवन जीने के लिए और इतना ही नहीं मरण के लिए भी त्याग की आवश्यकता है। जो ग्रहण किया है उसी का त्याग होता है। पहले ग्रहण फिर त्याग यह क्रम है। यदि ग्रहण नहीं है तो त्याग भी नहीं होगा।
    जो वस्तु अपनी नहीं है, उसमें ‘मेरा’पना छोड़ना, त्याग कहलाता है। वह त्याग जब सम्यग्दर्शन के साथ होता है, तब ‘उत्तम त्याग धर्म’ कहलाता है। कई जगहों पर त्याग को दान के पर्यायवाची शब्द की तरह प्रयोग किया जाता है। परंतु दोनों में कुछ अंतर इस प्रकार है- त्याग ‘पर’ (दूसरी) वस्तु की मुख्यता किया जाता है, दान अपनी वस्तु की मुख्यता से किया जाता है।
    त्याग और दान दोनों अवस्थाओं में दोनों ही मुख्य हैं- श्रावक जब तक पर वस्तुओं में अपनेपन का त्याग नहीं करेंगे तब तक उन्हें सम्यग्दर्शन नहीं होगा और साधु जब तक ‘स्वयं में लीनता-रूप’ स्वयं को चारित्र का दान नहीं करेंगे तब तक वह वास्तविक साधु नहीं कहलाएँगे।,

दान के मूल ४ भेद हैं- (१) पात्रदान, (२) दयादान (३) अन्वयदान (४) समदान। पात्रदान-मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, आदि धर्मपात्रों को दान देना पात्रदान है। महाव्रतधारी मुनि, अणुव्रती श्रावक, व्रतरहित सम्यग्दृष्टि दान के पात्र हैं। इनको दिया जाने वाला दान ४ प्रकार का है (१) आहारदान, (२) ज्ञानदान, (३) औषधदान (४) अभयदान।
मुनि, आर्यिका आदि पात्रों को यथा विधि भक्ति, विनयख् आदर के साथ शुद्ध भोजन करना आहारदान है।  मुनि आदि को ज्ञानाभ्यास के लिए शास्त्र अध्यापक का समान जुटा देना ज्ञानदान है। मुनि आदि व्रती त्यागियों के रोगग्रस्त हो जाने पर उनको निर्दाेष औषधि देना, उनकी चिकित्सा (इलाज) का प्रबंध करना, उनकी सेवा सुश्रुषा करना औषधदान है। वन पर्वत आदि निर्जन स्थानों में मुनि आदि व्रती त्यागियों को ठहरने के लिये गुफा मठ आदि बनवा देना जिससे वहाँ निर्भय रूप से घ्यान आदि कर सकें, अभयदान है।

दयादान या करुणादान- दीन दुःखी जीवों के दुःख दूर करने के लिए आवश्यकता के अनुसार दान करना दयादान है। यदि कोई दुखी दरिद्री भूखा हो तो उसको भोजन करना चाहिये, यदि निर्धन विद्यार्थी हो तो उसको पुस्तक, छात्रवृत्ति (वजीफा) ज्ञानाभ्यास का साधन जुटा देना चाहिये। गरीब रोगियों को मुफ्त दवा बाँटना उनेक लिये चिकित्सा का प्रबंध कर देना, यदि दीन दरिद्र दुर्बल जीव को कोई सता रहा हो तो उसकी रक्षा करना, भयभीत जीव का भय मिटा कर निर्भय करना, नंगे को वस्त्र देना, प्यासे को पानी पिलाना तथा अन्य किसी विपत्ति में फँसे हुए जीव का करुणा भाव से सहायता करना, किसी अनाथ का पालन पोषण करना, विधवा अनाथिनी की सहायता करना, निर्धन लड़के लड़कियों का विवाह सम्बंध करा देना, यह सब दयादान या करुणादान है।

समदान-समाज, जाति बिरादरी में सब व्यक्ति एक समान होते हैं। धनी धनहीन का भेद होते हुए भी सबके अधिकार बराबर होते हैं। उनमें छोटा बड़ापन नहीं होता, अतः समाज उन्नति के लिए जो धन खर्च किया जावे, प्रेम संगठन बढ़ाने के लिये जो द्रव्य लगाया जावे यह सब समदान है। जैसे-धर्मशाला बनवाना, विद्यालय पाठशाला खोलना, प्रीतिभोज करना, सभा समिति स्थापित करना, प्रचारकों द्वारा प्रचार करना इत्यादि। अन्वयदान- अपने पुत्र, पुत्री, भाई बहिन, भानजे, भतीजे आदि सम्बन्धियों को द्रव्य देना अन्वयदान है।
    इन चारों दानों में से पात्रदान भक्ति से दिया जाता है। करुणादान दयाभाव से किया जाता है। समदान सामाजिक प्रेम से किया जाता है और अन्वयदान सम्बंध के स्नेह से दिया जाता है।
    सबसे उत्तम शुभफल पात्रदान से प्राप्त होता है। जैसे बड़ का बीज तिल से भी छोटा होता है किन्तु उसको बो देने पर बड़ का बड़ा भारी छायादार वृक्ष पैदा हो जाता है उसी तरह धर्म पात्रों को दिया गया थोड़ा सा भी दान बड़े भारी शुभ फल को प्रकट करता है। पात्रदान से दूसरी श्रेणी पर करुणादान है क्योंकि करुणादान में हृदय की दयाभावना फलती-फूलती है अहिंसा भाव का विकास होता है, और दुखियों का दुःख दूर होता है। तीसरी श्रेणी पर समदान है क्योंकि समदान से साधर्मीजन का पोषण होता है जिससे धार्मिक परम्परा को प्रगति मिलती है। चौथी श्रेणी का अन्वय दान है क्योंकि इसमें लौकिक स्वार्थ की भावना मिली रहती है। दान देते समय दाता के हृदय में न तो क्रोध की भावना आनी चाहिये, न अभिमान जाग्रत होना चाहिए, दान में मायाचार तो होना ही नहीं चाहिये। ईर्ष्याभाव से दान देने का भी यथार्थ फल नहीं मिलता। साथ ही किसी फल या नाम-यश की इच्छा से दान करना भी प्रशंसनीय तथा लाभदायक नहीं। दाता को शांत, नम्र, सरल, निर्लाेभी, सन्तोषी, विनीत् होना चाहिए। कीर्ति तो दान देने वाले को अपने आप मिलती ही है फिर कीर्ति की इच्छा से दान करना व्यर्थ है। दान देते समय सदा यह उदार भाव होना चाहिए कि जिसको दान दे रहा हूँ उसका कल्याण हो। दान देने से पुण्य कर्म का संचय होता है जिससे परलोक सुधरता है, इस कारण दान से स्व-उपकार होता ही है।













-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
             इन्दौर 

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