बाल मनोविज्ञान में बालकों के मानसिक विकास का अध्ययन किया जाता है। बालकों की गर्भावस्था से लेकर किशोरावस्था तक का अध्ययन इसमें शामिल है। बच्चे के व्यवहार के बारे में प्राथमिक शिक्षक को जानना अति आवश्यक माना गया है। क्योंकि जब तक शिक्षक बच्चों के बारे में जानेगा नही, तो वह बच्चों के साथ अच्छी तरह से कार्य नहीं कर सकेगा। उसे बच्चों की रूचियों, स्वभाव व क्रमिक विकास आदि के बारे में जानना बहुत जरूरी है। जब ही वह बच्चों के साथ सहजता से उन्हें सीखने के भरपूर अवसर उपलब्ध करवा सकेगा। यदि कोई शिक्षक यह समझता है कि बच्चे तो कोरा कागज होते है, मिट्टी का लौंदा है,जैसा चाहे वैसा बनाया जा सकता। ऐसी मान्यता वाले शिक्षक के सीखने- सिखाने के काम भी इसी धारणा से ओतप्रोत होंगे। वह स्वयं ज्यादा काम करेगा, बच्चों की सहभागिता कम रखेगा, मतलब सीखना- सिखाना शिक्षक केन्द्रित हो जाएगा। इसके विपरीत यदि शिक्षक इस धारणा को लेकर काम करता है कि हर बच्चा सीख सकता है, सबमें व्यक्तिगत भिन्नता होती है। कोई जल्दी, कोई धीमी गति से सीखता है। इस मान्यता के साथ काम करने वाले शिक्षक बच्चों की आवश्यकता, रूचियों, स्तर का ध्यान रखकर ही सीखने- सिखाने की गतिविधियां उनके साथ करता है। वह बच्चों के लिए मार्गदर्शक के रुप में ज्यादा से ज्यादा सीखने के अवसर उपलब्ध कराता है। अर्थात यहां सीखने-सिखाने में बच्चा केंद्र में रहता है। इसे ही बाल केंद्रित शिक्षा कहते है। बच्चों को करके सीखने के ज्यादा से ज्यादा मौके ,अवसर देना, उनकी बातों को ध्यान से सुनना, प्रश्न् करने के लिए प्रोत्साहित करना, उनकी बात का सम्मान करना, जिज्ञासाओं को शांत करना, बच्चों को मौखिक अभिव्यक्ति के पर्याप्त अवसर उपलब्ध करना।
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