वट सावित्री व्रत कथा

भद्र देश के राजा थे ,उनका नाम अश्वपति  था ।उनकी कोई संतान नहीं थी ।उन्होंने  सावित्री  देवी की बहुत उपासना की  ।तब उन्हे  कन्या प्राप्त हुई , जिसका नाम सावित्री रखा ।सावित्री जैसे देवी का वरदान थी ,वैसे ही रूपवान और गुणवान भी थी । जब सावित्री विवाह के योग्य हुई तब सावित्री के पिता महाराज अश्वपति सावित्री के लिए वर खोजने निकले । लेकिन उन्हें अपनी गुणवान पुत्री के योग्य कोई वर नहीं मिला , तब उन्हे सावित्री के विवाह की चिंता सताने लगी जब बहुत प्रयास के बाद भी योग्य वर नहीं मिला ,तब उन्होंने सावित्री को अपना वर खोजने के लिए भेजा ।पिता के सेवकों के साथ सावित्री निकल पड़ी अपने वर की खोज में ,कई राज्यों के राजकुमार देखे लेकिन  कोई योग्य नहीं लगा ।अंत में सावित्री घर को लौट चली ,विश्राम के लिए रथ एक वन में रोका । वहां एक लकड़हारा लकड़ी काट रहा था ।जो बहुत तेजस्वी दिखाई दे रहा था ।सावित्री ने देखते ही अपने वर के रूप में उस युवक का चुनाव कर लिया ।सत्यवान की आयु एक वर्ष है यह केवल सावित्री को ही ज्ञात था और किसी को नहीं  ।  सावित्री ने एक रस्सी में 365 गांठें लगाई  जो प्रतिदिन एक खोल दिया करती थी ।जैसे जैसे गांठों की संख्या घटती जा रही थी सावित्री का दुख बढ़ता जा रहा था।जिस दिन अंतिम गांठ बची उस दिन सावित्री ने सत्यवान के साथ जाने की आज्ञा अपने सास ससुर से मांगी ,सावित्री ने आज तक कुछ नहीं मांगा था इसलिए सत्यवान के माता पिता ने सत्यवान के साथ सावित्री को जंगल में जाने की आज्ञा दे दी । सावित्री के हृदय में धड़कन हर पल बढ़ती जा रही थी। सत्यवान को लकड़ी काटते हुए सिर में पीड़ा होने लगी । सत्यवान ने सावित्री को बताया की मेरे मस्तक में असहनीय पीड़ा हो रही है ।सावित्री ने बड़े धैर्य के साथ कहा आप नीचे उतर आईए ।नीचे आने पर सावित्री ने सत्यवान का सिर अपनी गोद में रख लिया और उसे धीरे धीरे सहलाने लगी । कुछ समय पश्चात सावित्री को एक छाया अपनी ओर आती दिखाई दी ,सावित्री ने पूछा की आप कौन है और यहां क्यों आए हैं उस छाया ने  उत्तर दिया कि मैं यमराज हूं और तुम्हारे पति के प्राण लेने आया हूं । युवक से ,परिवार के बारे में पूछने पर पता चला कि वह शल्व देश के राजा  द्युमत्सेन का पुत्र सत्यवान है ।सत्यवान ने बताया की मेरे पिता नेत्रहीन होने के कारण राजगद्दी से उतार दिए गए ।उनका राजपाट ले लिया गया ,इसलिए हम सब वन में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। सत्यवान ने सावित्री को बहुत समझाने का प्रयत्न किया कि आप राजमहल में रहने वाली , वन में कष्ट साध्य जीवन कैसे जी सकेंगी ? लेकिन सावित्री अपने निर्णय पर अटल रहीं । सावित्री जब अपने महल पहुंची तब संयोग से उस समय वहां नारद मुनि सावित्री के पिता अश्वपति से कोई गहन चर्चा कर रहे थे।सावित्री ने अपने पिता को यात्रा का सारा विवरण सुनाया और अपना निर्णय भी बताया । नारद मुनि ने गणना करके अश्वपति से कहा की सत्यवान की आयु मात्र एक वर्ष ही बची है ।यह सुनकर सावित्री के पिता बहुत दुखी हो गए उन्होंने अपनी पुत्री को सत्यवान से विवाह न करने के लिए बहुत समझाया लेकिन सावित्री ने कहा की जो मेरे भाग्य में होगा वह मैं स्वीकार करूंगी , परन्तु विवाह तो सत्यवान से ही करूंगी । इस तरह सत्यवान और सावित्री का विवाह सम्पन्न हो गया।सावित्री अपना सभी  राज वैभव छोड़कर ,अपने पति और सास ससुर के साथ वन में बहुत ही साधारण जीवन जीने लगीं ।अपने सास ससुर और पति की बहुत देखभाल और सेवा में समर्पण भाव से लगी रहतीं । तब सावित्री ने कहा मेरे ससुर जी की नेत्रज्योति पुनः प्राप्त हो और उनका छीना हुआ राजपाट मिल जाय ।यमराज  ने तथास्तु कहा और आगे बढ़ गए । सावित्री फिर भी पीछे चलती रहीं ,जब यमराज ने देखा तो कहा ,एक वरदान और मांग लो और लौट जाओ ।तब सावित्री ने कहा मेरे पिता महराज अश्वपति पुत्रहीन हैं उन्हें पुत्र की प्राप्ति हो ,यमराज ने पुनः तथास्तु कहा और चल दिए ।सावित्री  यमराज के पीछे तब भी चलती रहीं ।यमराज ने कहा मेरे अधिकार में केवल तीन वरदान है दो दे दिया एक और मांग लो सावित्री ने कहा मैं पति के बिना कैसे रहूंगी इस संसार में आप मुझे भी इनके साथ ले चलिए , यमराज ने कहा बेटी अपनी आयु पूरी किए बिना  और सशरीर मेरे साथ कोई नहीं जा सकता है ।तुम अपने पति के प्राणों के अलावा कोई दूसरा वरदान मांग लो ये अंतिम वरदान होगा इसके पश्चात मैं कुछ नहीं कर सकता हूं। सावित्री ने कहा प्रभु आप मेरे जीवन का कोई आधार दे दीजिए जिसके सहारे मैं जीवन व्यतीत कर सकूं ।आप मुझे पुत्रवती होने का वरदान दीजिए, यमराज ने बिना गहराई से सोचे l मुझे कोई देख नहीं पाता है लेकिन तुम्हारे अंदर सतीत्व का तेज है इसलिए तुम मुझे देख पा रही हो ।मैं तुम्हारी पति भक्ति से प्रसन्न होकर तुम्हे वरदान देना चाहता हूं , मांगो क्या मांगना है ?तब तक सत्यवान की चेतना लौट आई ,सत्यवान बोले मैं बहुत गहरी निद्रा में सो गया था ।मेरी पीड़ा भी मिट गई ।प्रसन्नता पूर्वक दोनों घर आए , यहां पिता की आंखों की ज्योति आ जानें से अपार हर्ष हुआ सभी प्रसन्नता के साथ सावित्री के माता पिता से मिलने गए ।तब तक वहां नारद मुनि आ गए और उन्होंने सावित्री की महानता सबको बताई की किस तरह सावित्री ने अपने पति , माता पिता और सास ससुर का कल्याण किया ।नारद जी ने कहा ईश्वर एसी पुत्री ,पुत्रवधू और पत्नी सबको दे।जिस दिन सावित्री ने अपने पति के प्राण बचाए  उस दिन ज्येष्ठ मास की अमावस्या थी । तब से आज तक अपने पति की दीर्घायु के लिए स्त्रियां ये वट सावित्री व्रत और पूजा करती आ रही हैं ।

सावित्री लौट कर अपने पति  के समीप आई ।जिस वृक्ष के नीचे सत्यवान की की मृत देह  थी वह बरगद (वट वृक्ष)का वृक्ष था सावित्री ने उसकी परिक्रमा की विधिवत पूजन किया।

शीघ्रता से तथास्तु कहकर चल दिए ।सावित्री फिर भी पीछे पीछे चलती रहीं अब तो यमराज झुंझलाकर बोले बेटी  मैं  तीन वरदान दे चुका हूं अब मैं कुछ नहीं कर सकता हूं ।सावित्री ने कहा मैं आपके तीसरे वरदान के बारे में ही कह रही हूं ।बिना पति के पुत्रवती होने का वरदान तो मेरे लिए समाज अभिशाप बन जायेगा ।अब यमराज को अपनी भूल का आभास हुआ और हारकर यमराज को सत्यवान के प्राण लौटाने पड़े ।यमराज ने कहा आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ है ।बेटी तुम इतिहास में अमर हो गईं ।प्रातः स्मरणीय सती स्त्रियों में तुम्हारा नाम रहेगा ।









   शशि मिश्रा

करनैलगंज गोंडा

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