एक दिन से लेकर एक माह तक की अवधि में मंचित होने वाली रामलीलाएं न केवल भारत की प्राचीन संस्कृति के सार्वभौमिक स्वरुप का दर्शन कराने में समर्थ हैं बल्कि साहित्यिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा राष्ट्रीय चेतना के संवेगात्मक प्रवाहोत्कर्ष से ओतप्रोत शास्त्रार्थ के रूप में भी प्रतिष्ठित हुई हैं| चार वेद, छै शास्त्र, अठारह स्मृतियाँ, 108 उपनिषद तथा अठारह पुराणों में समाहित ज्ञान का सार तत्व राम की लीलाओं में परिलक्षित होता है| बशर्ते कि रामलीला को उसके मूल स्वरुप में मंचित किया जाये| भौतक प्रगति की अन्धी दौड़ में भागते समाज में नई पीढ़ी को औपचारिक शिक्षा के नाम पर जो ज्ञान बांटा जा रहा है| वह रोजगार भले ही प्रदान करता हो परन्तु संस्कार प्रदान करने में सक्षम नहीं है| इससे भविष्य में संस्कार विहीन समाज का एक ऐसा भयावह रूप साकार होते हुए दिखाई दे रहा है| जिसमें भौतिक सुख प्रदान करने वाले संसाधन तो एक से बढ़कर एक होंगे परन्तु मनुष्यता का सर्वत्र अभाव दिखाई देगा|
रामलीला का प्रारम्भ किस समयावधि में हुआ इसका ज्ञान शायद ही किसी को हो| परन्तु यह अवश्य कहा जा सकता है कि लोकगीतों में रामकथा का गायन जितना पुराना है, रामलीला को भी उतना ही प्राचीन मानना चाहिए| क्योंकि लोकगीतों एवं लोकनाट्यों के बीच प्रथम दृष्टया ही अन्तः सम्बन्ध दिखाई देता है| यदि यह कहा जाये कि लोकनाट्य लोकगीतों के ही नाट्य रुपान्तरण हैं तो अतिसंयोक्ति नहीं होगी| सुदूर ग्रामीण अंचलों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रामकथा पर आधारित अनेक लोकनाट्य आपको आज भी देखने को मिल जायेंगे| चित्रकूट क्षेत्र में ‘राउत’ जन समुदाय द्वारा खेले जाने वाले नाटक रामकथा पर ही आधारित होते हैं| उत्तरांचल का लोकनाट्य ‘रम्मान’, गुजरात का ‘भवाई’, महाराष्ट्र का ‘ललित’ तथा बंगाल का ‘जात्रा’ इसके प्रमुख उदाहरण हैं| ‘श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण’ रामकथा का सबसे प्राचीन ग्रन्थ माना जाता है| लवकुश द्वारा रामकथा का गायन भी तभी किया गया था| उसके बाद से रामकथा का गायन किसी न किसी रूप में निरन्तर होता चला आ रहा है| जो कि संस्कृत के छन्दबद्ध श्लोकों तथा लोकभाषा दोनों ही रूपों में प्रचलित हुआ| ऐसा माना जाता है कि रामलीला की प्रतिष्ठा भी इसी के साथ हुई है| महाभारत तथा हरिवंश पुराण में राम के चरित्र को लेकर नाटक मंचित करने का उल्लेख मिलता है| भवभूति का ‘उत्तर-रामचरितम’ एवं ‘महावीर चरितम’, कालिदास का ‘हनुमान्नाटक’, महाकवि भास का ‘प्रतिमा’ और ‘अभिषेक’, मुरारि का ‘अनर्घराघव’, मयूरराज (अनंगहर्ष) का ‘उदात्तराघव’, राजशेखर का ‘बाल रामायण’, केरल नरेश कुलशेखर वर्मा का ‘आश्चर्य चूड़ामणि’ तथा जयदेव का ‘प्रसन्न राघव’| रामकथा पर आधारित ये सभी नाटक मंच के लिए ही लिखे गये थे| इस तरह गोस्वामी तुलसीदास के पूर्व भी रामलीला की समृद्ध परम्परा रही है| तुलसीदासजी ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘रामचरितमानस’ के आधार पर रामकथा का मंचन प्रारम्भ कराके रामलीला को एक नया आयाम दिया था| रामलीला आज न केवल भारत के कोने-कोने में बल्कि नेपाल, श्री लंका, थाईलैण्ड, मारीशस, रूस, ट्रिनिडाड एंड टोबैको, सूरीनाम, लाओस, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, म्यांमार तथा जापान सहित विश्व के कई देशों में भी लोकप्रियता के चरम पर है| इससे सिद्ध होता है कि रामलीला मात्र हिन्दुओं की थाती नहीं है| बल्कि इस्लाम सहित अन्य विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयाईयों के मन मस्तिष्क पर भी अपना प्रभाव छोड़ने में सक्षम है| इसका प्रमुख कारण इसके माध्यम से नई पीढ़ी में संस्कारों तथा सामाजिक एवं पारिवारिक मूल्यों के बीजारोपण को ही माना जाना चाहिए और यह है भी|
हजारों वर्ष पूर्व स्थापित हुए श्रीराम के आदर्श आज भी समाज को एकता के सूत्र में पिरोने में समर्थ हैं| बशर्ते कि उन्हें सही रूप में परिभाषित एवं प्रस्तुत किया जाये| रामलीला का मंचन श्रीराम के उन्हीं आदर्शों को प्रस्तुत करने का सशक्त एवं प्रभावशाली माध्यम है| ऊँच-नीच के खांचे में बंटे समाज में समानता का भाव स्थापित करना आज एक अति बड़ी चुनौती है| राम ने अपने जीवन में ऐसी अनेक चुनौतियों का सदैव सहजता से समन किया था| जिसने उन्हें महामानव के रूप में प्रतिष्ठित करने में अहम भूमिका निभाई| व्यक्ति के सुकृत्य ही उसे मानव से महामानव बना देते हैं और ऐसे महामानवों का जीवन-वृत्त ही नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करते हुए भविष्य के महामानवों की पृष्ठभूमि का सृजन करता है| रामलीला राम के उदात्त चरित्र का ही रंगमंचीय निरूपण है| जिसमें जीवन का प्रत्येक पहलू समाहित है| किसी भी नाट्य का नायक जितना सबल होगा वह नाट्य भी उतना ही अधिक प्रभावशाली एवं सामाजिक परिवर्तन करने में समर्थ होगा| रामलीला ऐसा ही एक लोकनाट्य है| जो जीवन के प्रत्येक पहलू का सहज एवं अनुकरणीय रूप प्रस्तुत करता है| परन्तु दुर्भाग्य से आज रामलीलाएं मात्र लकीर पीटती हुई दिखाई दे रही हैं| प्रबुद्ध वर्ग की रामलीला से होती जा रही विरक्ति के कारण इसका संचालन धीरे-धीरे उन हाथों में पहुँच रहा है जो इसे मनोरंजन का साधन बनाना चाहते हैं| जिससे रामलीला के मूल स्वरुप का क्षरण होना स्वाभाविक है| अतएव प्रबुद्ध वर्ग को इसे अपना सामाजिक दायित्व समझकर इसके संरक्षण एवं संवर्धन हेतु अपनी सतत भूमिका सुनिश्चित करनी ही चाहिए| तभी रामलीला के मूल स्वरुप को अक्षुण्ण रखा जा सकता है| मोबाईल युग में भोगवादी पाश्चात्य संस्कृति का दायरा निरन्तर बढ़ता जा रहा है| जो कि सामाजिक चिन्ता का विषय है| संस्कारों के अभाव में न केवल सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है बल्कि युगों पुरानी परिवार नामक संस्था भी टूटकर बिखर रही है| आज भाई भाई को ही सन्देह की दृष्टि से देखते हुए अपना प्रबल शत्रु समझने लगा है| पति और पत्नी के बीच विश्वास की लकीर निरन्तर पतली हो रही है| पुत्र माता-पिता का अनुशासन मानने में स्वयं को पिछड़ा समझता है| ऐसी स्थिति में उदात्त मानवों के चरित्र चित्रण ही समाज का मार्गदर्शन करते हुए संस्कारों की पुनर्प्रतिष्ठा कर सकते हैं| जिसमें रामलीला सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम है|
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