अपनी ज़िन्दगी....कँहा है अपनी ज़िन्दगी
कैसी होती है अपनी ज़िन्दगी, कँहा है अपनी ज़िन्दगी ??   आज के बच्चे कहते। हैं ......हमें अपनी ज़िन्दगी जीनी है ,क्या कभी हमारी नहींं  थी अपनी ज़िन्दगी या क्या कभी होगी नहींं अपनी ज़िन्दगी ।  होश सम्भाला , स्कूल गए, तो हर तरह की बँदिशे .... अभी छोटे हो, बड़े हो कर जी लेना अपनी ज़िन्दगी...स्कूल पास किया... सोचा कालिज जाऐंगे  तो जी लेंगे अपनी ज़िन्दगी ।    पापा....  कालिज  जाना है......( पापा का कहना ) .......नहीं  कालिज का माहोल बहुत ख़राब है ,  घर का कुछ काम-काज सीख लो तुम्हारी शादी भी तो करनी है  ।.........लेकिन पापा अभी मेरी उम्र ही क्या है ....अभी मुझे भी तो अपनी ज़िन्दगी जीनी है ।......शादी के बाद अपने घर जैसे चाहो जी लेना अपनी ज़िन्दगी ....।

 कुछ समय बाद हमारी शादी कर दी गई ...सोचा अब जीऐंगे अपनी ज़िन्दगी ।.......

.अपनी ज़िन्दगी ?? ....अरे.... अगर अपनी ज़िन्दगी जीनी थी तो शादी क्यों  की.....अकेली ही रह लेती... यहाँ तो पूरे परिवार के लिए जीना है , अपने लिए नहीं ...सच कहा...परिवार के लिए ही जीना है....लेकिन क्या कोई अपनी ज़िन्दगी नहीं ??????  बच्चे हो गए, घर मे खुशियाँ आ गई ,परिवार बढ़ा, , अब बच्चे बड़े हो गए, सोचा अब जीऐंगे अपनी ज़िन्दगी ......ज़िन्दगी...अरे ज़िन्दगी कौन सा खत्म हो रही है.. अभी तो पूरी पड़ी है ज़िन्दगी....बच्चे कब बड़े हो गए , पता ही नही चला ......आज बड़े बेटे का जन्मदिन है, ....सब मिलकर मनाऐंगे, खूब मस्ती करेंगे  हम भी बच्चो सँग, खूब धमाल करेंगे  ।

.अरे कहां   मम्मा , आप भी ना क्या करते हो  बर्थडे पार्टी कोई घर पे होती है क्या ?? मुझे अपने दोस्तो के साथ बाहर पार्टी करनी है , और आप क्या करोगे वहाँ पर,  और प्लीज़ मुझे डिस्टर्ब मत करना और बार-बार मुझे फोन मत  करते रहना, मुझ दोस्तों  के साथ  एन्जाए करना है, मुझे अपनी  ज़िंदगी अपने  स्टाईल से जीनी है ।

सोचा  बच्चों  की शादी हो जाएगी तो हम  र्फ्री हो जाऐंगे , तब जी लेंगे अपनी ज़िन्दगी  ..  लेकिन...जी हाँ फिर एक लेकिन......ये लेकिन ही नही जीने देता ।.....अरे मम्मा आप तो जी चुके अपनी ज़िन्दगी .......अब हमे भी तो जीने दो अपनी ज़िन्दगी ......हम कब जीऐंगे अपनी ज़िन्दगी  ।

अपनी ज़िन्दगी जीने की लालसा  में कब खत्म होने को आई ज़िन्दगी .... पता ही  नही चला....अब तो बोझ सी लगती है ज़िन्दगी .......ना जाने क्यूँ हम पे भारी पड़ रही है ज़िन्दगी  .......आज बच्चे जा रहे है  छोड़ कर दूसरे घर  शिफ्ट हो रहे है ...कहते है चार दिन की ज़िन्दगी है, वो तो हम चैन से जी लें , आप तो चैन लेने नहीं  दोगे।  मम्मा  थक चूके है हम आपसे, बस अब और बर्दास्त नही होता ।....  वो अकेली बेचारी क्या- क्या करे .....घर सँभले, ....बच्चो को सँभले....या दिन-रात आप की खिट-खिट........ कभी  रात को आवाज़ लगा कर जगा देती हो, कभी दिन मे परेशान करते हो....कभी रात को आप को पानी चाहिए ,तो कभी दवाई, तो कभी आप को कुछ और चाहिए ।  बस मम्मा अब हमें  भी चैन से रहना है...हमें भी जीनी है अपनी ज़िन्दगी .....हम ज रहे हैं अपनी ज़िन्दगी जीने, आप जीओ अपनी ज़िन्दगी......अब कौन समझाए उन्हें  कि अब रही कहाँ ज़िन्दगी.....अब तो बोझ लगती है ज़िन्दगी .....काश हमने भी  ये सोचा होता ...कि कुछ पल के लिए ही ...छोड़ दूँ बच्चों   को उनके हाल पर, ....छोड़ दूँ  बुज़ुर्गो को थोड़ी देर के लिए, ....छोड़ दू समाज, तोड़ दूँ ये रिश्ते-नाते, ये बन्धन ...और जी लूँ अपनी ज़िन्दगी...लेकिन  नहीं  कर पाई.....कैसे करती ...यही सब तो मेरी ज़िन्दगी थे......इन्हीं को अपनी ज़िन्दगी बना लिया ।...

*.सब रिश्ते निभाए, मगर खुद से खुद का रिश्ता निभाना ना आया....हमें ज़िन्दगी जीना ना आया ।   *

मरने से पहले इक बार खुल के जी लेना, इसी को कहते है ज़िन्दगी से इश्क कर लेना  

 


                                प्रेम बजाज



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