चाहा था तुम्हें

चाहा था तुम्हें फ़ूलों की तरह,
पर तुम ने काँटों की चुभन क्यों दी ?


चाहा था कि तुम चाँद की तरह स्निग्धता व शीतलता दो,
पर तुमनें सूर्य के समान तपन क्यों दी ?


चाहा था तुम्हें,आलौकिक सत्य की तरह,
पर तुम कलयुगी असत्य क्यों निकली ?


और चाहा था तुम्हे,जाति, धर्म से परे,
पर तुम सामाजिक रूप से असहाय क्यों निकली?


चाहने से क्या होता है ?
कभी कभी एक फूल के लिए एक भंवरा दीवाना होता है,और फूल उसकी मौत का कारण और भँवरा बेचारा होता है ।


जिस तरह इस धरा पर आकाश और पाताल का मिलन एक साथ नहीं हो सकता ।
उसी तरह बेवफ़ा,वफ़ा का पर्याय नहीं हो सकता।



        दिनेश कुमार पाण्डेय



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