क्यूँ गाए जा रही है कायनात की हर शै
अपनी सुंदरता के गुँजायमान नग्में
कहाँ फुर्सत दिन रात खुद में ही उलझे
इंसान को जो सुन सके इनकी मधुर तान..!
हिमशिखरों से बहती सरगम,
गंगा करती कलकल गान,
बगियन का हर फूल है गाए
खुशबू की देते पहचान.!
संसार शिल्पी की रचनाओं को न्याय कहाँ देता इंसान
अंतरिक्ष यान को पल में उड़ाता नवयुग का करे निर्माण
यायावर सा भटक रहा धरती पर लाता स्वर्ण विहान.!
स्वर्णिम भोर को नैंन खोल तू
तलाश कर खुद की पहचान,
आसपास बहती उर्जा का
पुलकित बुन ले एक वितान.!
आबो-हवा के कण से उठते
सुर संगीत के मोती चुनकर
साँसों की माला में गूँथ कर
शांति का भर उर संचार।।
भावना ठाकर
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