ले रहे हैं वो बोसे मेरी मज़ार के, काश हमें भी नसीब होता उनका कफ़न चुमना
ग़र इज़ाज़त नहीं थी लब छूने की, मिल जाती इज़ाज़त वो हाथ का चूमना ।
तड़प रहे थे कब से लब हमारे हों और रूख़सार उनके हो, ए दिल तेरे भी रँग अजीब है , उनका होते ही लबों को तुने छु लिया ।
जिस छुअन को ताउम्र तरसते रहे , कयामत आई तो पल मे लबों ने लबों को छु लिया ।
वो शमाँ बन कर जलाते रहे हमें,हम खा़मोश रह कर उनकी ख़ातिरदारी का मज़ा लेते रहे ।
अठखेलियाँ करती रही रात भर शमाँ हमसे, कभी हम उनके, ओर कभी वो हमारे लबो को चूमते रहे ।
जिनको चाहा हमने ऊँगलियों पर गिन सकते हो,
जो तुम्हारी चाह में तड़फ-तड़फ कर मर गए ,उनका तो कोई हिसाब नहीं ।
तुम्हारी मोहब्बत में ऐसा भी वक्त गुज़रा हमपे,
कि आँधिया चलती रही और हम तिनके का सहारा लिए बैठे रहे ।
ग़ालिब ने कहा इश्क ने निकम्मा कर दिया, हम कहते है इश्क ने इन्साँ बना दिया ।
प्रेम बजाज
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