नन्ही सी थी मेरी ज़िन्दगी 
                     


नन्ही सी उम्र में 

नन्हे नन्हे से सपने थे 

भूख से तड़पती हुई ज़िन्दगी थी

फिर भी स्कूल जाने के सपने थे 

                           न माँ की प्यार भरी पुकार थी 

                           न ही पापा के डराते हुए डण्डे थे

                           न किसी का सहारा था 

                           खुद से ही खाना खाना था

उंगलियाँ कोमल थी 

जब आये थे 

पर हमेशा कोमल ही रहेगी

कभी सोचा न था

                           एक आवाज सुनलो हमारी हमसे

                           मुझे भी ज़िन्दगी जीने का हक है

                           तुम्हारे जैसे 

                           क्यो करते हो

हमपर अत्याचार इतना 

चंद पैसे के लिए तोड़ते हो 

हमारा सपना

मत छीनो हमसे 

                           हमारी चेहरे की मुस्कान को

                           कलम पेन्सिल की उम्र मे

                           मत डालो 

                           छैनी हथौड़े की पहचान को

अगर पेपर बेचने वाला भी एक दिन

देश का राष्ट्रपति बन सकता है

तो हौसले की मिशाल से कोई 

क्या नही कर सकता है   

 


                    मनीष कुमार 



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