रुतबा.. ज़र्रों का

तलवों तले रहकर
बुलंदियों के...
ख़्वाब देख डाले हैं..
इन ज़र्रों ने..
शिख़र को इंगित कर..
आकाश देखते हुए
रोज़ उकसाते हैं ये
खुद को... हवाओं को
मनाने का हुनर.. भी
जान गये हैं, अब तो
ख़्वाब देखना बुरा तो नहीं?
सवालिया निगाहों में प्रश्न..
तैर जाते  हैं.. अक्सर, और ..
फिर, बन जाता है... एक
बहस का...मुद्दा..क्षमताओं
और अक्षमताओं के बीच
आशाओं के समक्ष कब
ठहर पाती हैं कुंठाएं?
आखिरकार निराशाओं को
हराना सीख ही जाते हैं ये
वक्त के साथ खुद को
ढालकर..हवाओं की
उंगली थाम पा ही लेते हैं ये
आकाश की विस्तृत ऊंचाइयां
देखो खोज कर, सितारों के
बीच खुद को साबित कर
इठलाते  मिलेंगे ये
मामूली सा ज़र्रा नही
अब एक.शख्सियत हैं ये
और मिसाल है दूसरों के लिए



     निधि भार्गव मानवी



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