तुम और अपना गाँव
कमला चाची दरवाजे पर टुकटुकी लगाए आज सुबह से
अपने परदेसी बेटे जीवन की अनवरत प्रतीक्षा कर रही थीं
,होली का दिन जो आ गया था ,मगर बेरोजगारी व गरीबी
के दंश से उबरने के लिए अपनी प्यारी विधवा मां को
बेसहारा छोड़ कमाई करने के लिए परदेस गया था उनका
इकलौता बेटा जीवन।
बेरोजगारी का डंक जीवन को काम की तलाश में अपने
प्यारे गांव शांतिपुर के सुकून से दूर चकाचौंध भरे शहर की
ओर जाने को मजबूर कर दिया था।
होली का दिन आ गया था मगर अभी तक जीवन वापस
अपने गांव नहीं आ सका था , जिसकी अनवरत से प्रतीक्षा
में एक-एक क्षण को बुढ़ापा की ओर तेजी से बढ़ रही
बेचारी विधवा मां ने तिनका तिनका जोड़ कर होली पर
बेटे के आगमन की संभावना से सोंठ गुड़ की गुझिया व
उसके पसंद के होले भून कर रखे थे । कमला चाची ने
खुशी के मारे उस दिन भोजन भी नहीं किया कि प्यारे बेटे
को अपने हाथ से खिला कर ही खाऊंगी ।
मगर यह क्या,,,,होली धू धू कर जल चुकी थी ,, इंतजार में
सुबह हो गई। गांव के गलियारों में बच्चे रंग खेल रहे थे
,लोग लुगाई हुड़दंग कर रहे थे ,गांव की गोरियां टोलियां
बनाकर होली गीत गा रही थी ,मगर इस बेचारी मां का
दिल सुनेपन से घिरा था ,,,,
उनकी आंखों का तारा उनका इकलौता लाल जो अब तक
घर नहीं पहुंचा था ।
कमला चाची को कुछ घबराहट सी हो रही थी ,कई प्रकार
की अशुभ कल्पनाएं उनकी रूह कंपा सी रही थीं , कि बेटा
किसी मुसीबत में तो नहीं है ,कहीं मां को भूल तो नहीं
गया परदेस में किसी से ब्याह रचा कर या शहर की
चकाचौंध देखकर ,,,,,।ये सब सोचकर उनके मन में
घबराहट से अनायास ही होने लगती वह ईश्वर को पुकार
रही थी ।
अचानक पीछे से किसी ने कमला चाची के आंखों पर रंग
लगे अपने हाथ ढक लिए ।
मां अपने बच्चे का स्पर्श हर हाल में पहचानती ही है चाहे
वह अपनी याददाश्त भी क्यों ना खो चुकी हो ,,फिर देखा
सामने उसका जीवन वापस आ गया था। वह अपने हाथों
में घर के कई सामान, मां के लिए साड़ी ,खाना पकाने के
लिए कुकर आदि लेकर अपने गांव वापस लौटा था ,अपनी
प्यारी मां के पास,,, अपने गांव के उसी बरगद की छांव में
जहां वह पल कर बड़ा हुआ था ।
शहर की घनी आबादी से दूर सुकून का जीवन जीने फिर
से वापस आ गया था जीवन,,,,,और मां से बोला ,अब मां
अपने गांव में ही रोजगार कर लूंगा ,तुम्हारे पास रहकर,
तुम और अपना गांव बहुत प्यारे लगते हो मुझे ,,,।













- सुषमा दीक्षित शुक्ला


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