मैं झूले वाली कुर्सी पर बैठा था, ये कुर्सी मुझे मेरे बेटे ने लाकर दी थी। मेरा बेटा, विवेक! कहा था पापा आपको बड़ा शौक था ना ऐसी कुर्सी का, तो बस अब आप आंनद लीजिए। मैं भी बड़ा खुश हुआ, दिल गदगद हो गया, मेरा छोटा सा बेटा कितना बड़ा हो गया। मोहल्ले भर के लोगों को बारी बारी से चाय पर बुलाता था ताकि उन्हें कह सकूं देखो ये झूले वाली कुर्सी मेरा बेटा लाया है। फिर उस कुर्सी पर बैठता और सबको झूलकर दिखाता। इस कुर्सी पर बैठने का उत्साह और सुकून आज भी बिल्कुल वैसा ही है, जैसा उस वक्त था।
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