स्वर्णिम उजाले नेह के


मेरा विश्वास मुझे आश्वस्त करता है कि यदि रुदन नवजात की प्रथम क्रिया है तो गीत के प्रति औत्सुक्य और वह भी आह्लाद मिश्रित; शिशु की जाग्रत अवस्था की प्रथम पहचान है।

सम्भवतः रोना और गाना दोनो ही ऐसी क्रियाएं हैं जो हर प्राणी में प्रकृतितः उपलब्ध हैं ।

स्वर भले ही गीतानुरूप न हों, माधुर्य भले ही न हो किन्तु गुञ्जन तो ईश- प्रदत्त है।

रोते हुए शिशु को शब्द नही, वरन् लयात्मक स्वरों से गुनगुना कर भी चुप कराया जाता है।अतएव गीत की शाश्वतता उनकी विश्व-व्यापकता तो विश्व विश्रुत है।

कविता तो मन का गीत है, उसके सृजन हेतु समय, स्थान, उपादान की आवश्यकता अनिवार्य नहीं है । गीत तो कभी भी कहीं फूट पड़ता है, बस उसमें कलेवर की सज्जा बाद में कर ली जाती है।

गीत में भाव ही उसकी आत्मा है और शब्द उसकी देह, तो गीत की इसी अवधारणा को पुष्ट करते हुये मेरी परम शिष्या शीतल वाजपेयी की गीत कृति पर अपने कतिपय विचारों का ताना-बाना बुना है।

यह सत्य है कि अध्यापक की दृष्टि बड़ी पैनी होती है, उसे कमियाँ पहले दिख जाती हैं और खूबियाँ बाद में ।

किन्तु शिशु और वह भी प्रथम, जन्म देते ही माँ प्रसव पीड़ा को विस्मृत कर आह्लादपूरित हो उठती है। तो समीक्ष्य कृति 'स्वर्णिम उजाले नेह के'  कवयित्री की प्रथम प्रकाशित रचना है इसकी प्रशंसा उसे प्रसन्नता देगी ही।

मेरा प्रयास होगा कि मैं विशेषताओं पर ध्यान दे सकूँ ।

पिंगल शास्त्र को दृष्टिगत करते हुए आधुनिक काव्य रचा ही नही गया। अतः इनमें छन्दो की प्रामाणिकता खोजना श्रमसाध्य कार्य होगा। इतने पर भी कृति की प्रत्येक रचना मात्रा भार को अति दृढ़ता से पकड़कर चली है।

एक मात्रा भी न कम न अधिक।

यह कवयित्री का चातुर्य नही काव्य-कौशल ही कहा जायेगा।

प्रथम रचना से लेकर अंतिम रचना तक इसका कुशलता से निर्वाह हुआ है।

अलंकार तो स्वाभाविक ढंग से प्रवेश पा गये हैं ।

उपमा-रूपक-मानवीकरण आदि अलंकार बिना बुलाये मेहमान नही लगते, प्रतीत ऐसा होता है कि देह के अनुरूप ही सज्जा हुई है, तभी रूप सुरूप हो सका है।

समकालीन कविता आज नैतिकता का छल छंद भरा ढोलक पीटती दिखती है, या फिर अपने पूर्वज कवियों का अनुसरण करती प्रतीत होती है।

मौलिकता का सर्वथा अभाव दिखता है। जब साहित्य में चोरो का बोलबाला हो रहा हो ऐसे में शीतल अपने नाम को सार्थक करती वाग्देवी का आशीर्वाद जान पड़ती है।

सर्वथा नवीन विषय पर कोमल लेप लगाकर आई है शीतल की कविताई।

उजालो के बीज वपन की कल्पना पुस्तक को चरितार्थ कर देती है। आदर्श हमारे साहित्य का प्राण है आत्मा है।

इस अवधारणा की पुष्टि करती हैं  शीतल की कविताएं ।

जब नकारात्मकता की बयार बह रही हो, जब चहुँ ओर कालिमा छाई हुई हो, तब भी कवयित्री का उत्साह धूमिल नही होता।

वह अंधकार में भी दीपक की लौ पर विश्वास प्रकट करती है-

ये माना कि तम है अंधेरा घना है।

मगर दीप की अपनी प्रस्तावना है।

और आशावाद जो कल तक प्रसाद जी का प्रसाद था कवयित्री के स्वरों में फूट पड़ता है,, दृढ़ता तो देखिये-

"तोड़कर पिंजरा जो नभ में स्वप्न के पंछी उड़ेंगे ।

है मुझे विश्वास इक दिन वे गगन को चूम लेंगे।

चाह गर मोती कि है तो डूबना मुझको पड़ेगा,

मिल नही सकते हैं मोती सागरों को बिन खँगाले।"

कवयित्री की दृढ़ इच्छाशक्ति स्तुत्य है और उसकी कृति का प्राण है।

अपने कर्तव्यों का विवेकपूर्ण ज्ञान हैं उन्हें-

"जीवन की राहों में हमको फूल मिलेंगे तो काँटे भी,

किसके साथ हमें रहना है ये हम पर निर्भर करता है ।"

      कहाँ उप्लब्ध हैं ऐसे कर्मवीर? 

गतानुगति को लोका: अथवा महाजनो येन गतः सः पंथः।।

का ही अनुसरण होता दिख रहा है।

कवि मन कहीं भाव रहित मिलते हैं तो कहीं शब्दों का जाल उलझा मिलता है,, शीतल की सपाट बयानी पारिवारिक चरित्रों को इतनी कोमलता, इतनी सहजता, इतनी आत्मीयता से परोसती है कि पाठक उसके रसावगाहन में डूब-डूब जाता है।

कतिपय रचनाएँ तो मन मस्तिष्क से उतरने का नाम नही लेतीं ।

अम्मा! तुम अब भी घर में हो।

अब भी अचार की महक तुम्हारी भंडरिया से आती है।

अब भी लगता है फुँकनी से तू

 चूल्हे को सुलगाती है।

तुम दिल में और नज़र में हो।

अम्मा! तुम अब भी घर में हो ।।

एक लम्बी कविता तथापि स्मृतियों को संजाये बचाये कवयित्री तो आज भी चलते हुए देखती है।

अब किस अंजान सफ़र में हो

अम्मा! तुम अब भी घर में हो ।।

हृदय पीड़ा से आप्लावित है ।

कवयित्री को अपने पिता से अलग होने का दर्द सालता है, वह भाई से मायका बनाये रखने को कहती है।

" बस इतना चाहूँ मैं तुमसे घर को घर सा रखना।

अम्मा-बाबू थक जायें तो भी पलको पर रखना।

तुम तो हो घर के कुलदीपक 

मैं आजन्म पयाई।।

सुधि ले लेना मेरी भइया सावन की रुत आई।।

भारतीय संस्कृति में बेटियों को पराया मानने का रिवाज़ सा है,

यह भी कवयित्री की पीड़ा है।

बाबुल की चिड़िया जब दूर देश उड़ जाती है तब भइया ही माता-पिता के अभिभावक बन जाते हैं ।

शीतल के मन की पीड़ा प्रत्येक स्त्री के मन की पीड़ा है।

कितनी सहजता हे भावचित्र उकेर दिया शीतल नें  साधुवाद ।

पिता से उपालम्भ देती पुत्री को भी गीतों में ढाला है।

"ओ बाबुल क्यों भेजा मुझको नागफ़नी के वन में"

ससुराल नागफनी का वन है फिर भी कवयित्री क्या कहती है अपने इस गीत में-

"विदा किया था जब बाबुल नें रीति-नीति सब थी समझाई।

लेकिन प्रिय घर आकर मैंने अपनी सब सुध-बुध बिसराई।।" 

कितनी सहजता से कवयित्री अपना हृदय उड़ेलकर रख देती है।

आज जब चहुँदिशि महिला सशक्तिकरण का महिमा मंडन होती नारियां वर्णित हो रही हैं, बेटी ही बेटी का यशगान हो रहा है ऐसे में "बेटे भी प्यारे होते है"

गीत कवयित्री को साहित्य में अमर कर देने वाला गीत बन जाता है।

" यादों की खुशबू " गीत में कवयित्री ने अपनी स्मृतियों की गठरी खोल कर रख दी है।

प्रतीत होता है कि गठरी में बंधी एक एक वस्तु कवयित्री के प्राणों में बसी है।

"फिर से आज पुराने ख़त की गठरी लेकर बैठ गयी मैं .....

माखन संग मिसरी वाला विम्व विधान अप्रतिम बन पड़ा है।

कवयित्री निःसंकोच अपने मन को खोलकर रख दिया है, वास्तव में अभिव्यंजना कवयित्री या किसी साहित्यकार के मन का दर्पन होती है।

उसका व्यक्तित्व सहज ही उसके सृजन में झलकता है।

जीवन के लगभग हर क्षेत्र का स्पर्श किया है कवयित्री नें ।

अपनी इतनी सी उम्र में इतनी परिपक्व रचनाएँ अन्यत्र दुर्लभ हैं ।

माँ वाणी की असीम कृपा मिली है शीतल को।

रसराज शृंगार को कवयित्री ने अपने गीतों में खूब उतारा है परन्तु कहीं भी अतिशयता, अनुभवहीनता, उच्छृंखलता नहीं  है। शालीनता के साथ शृंगार किया है कवयित्री के गीतों नें ।

"और मोहब्बत थोड़ी सी में शालीन प्रेम कैसे झलक रहा है।

"एहसासों ने छुआ है जबसे तबसे ऐसा लगता है,

थोड़ी तड़प थोड़ी सी राहत और शरारत थोड़ी सी।

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भँवरे की गुनगुन सुन कर कलियों नें घूँघट पट खोले।

कान्हा संग देख राधा को 

यमुना के तट ये बोले।

प्रेमी के नयनो में देखो

तुमको भी दिख जायेगा।

थोड़ी बेचैनी थोड़ा सा चैन

शिकायत थोड़ी सी।

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आहा!! कैसा सुन्दर मानवीकरण 

कैसा! प्यारा विम्ब विधान


कहाँ तक कहूँ? 

एक एक गीत मनके को रचना माला में चुन चुनकर पिरोया है शीतल नें ।

कुछ गीतों के विम्ब विधान इतने उत्कृष्ट बन पड़े हैं कि आँखो में चित्र उतर आते हैं, तो हृदय रसाप्लावित हो जाता है,, किसी भी श्रेष्ठ गीत की पहचान और क्या हो सकती है।

   

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को अपनी भाषा की रेशमी साड़ी में सजाकर प्रस्तुत किया है शीतल नें, उसे ज्ञात है कि रूप स्वरूप बन कर ही आकर्षण उपजाता है, यही मावन प्रकृति है।

अनगढ़ या देशज शब्द सुन्दर नही लगते कविता में, हाँ भाषा का स्थानीय प्रभाव अवश्य ही दृष्टिगत हुआ है।

भंडरिया, नजरौटा, छुपम-छुपाई आदि

किंतु ये शब्द गीतों के प्रवाह को गति देते प्रतीत होते हैं ।

काव्य ग्रंथ का शिल्प अप्रतिम है, प्रत्येक गीत गेयता की परिधि में है।

नवगीतकारों की चतुर्थ पीढ़ी अवश्य ही इसे मात्र अपनी पुस्तक की अल्मारी की शोभा ही नही बनायेगी अपितु अधिकांश गीत कंठहार भी बन जायेंगे ।

इस रचना में कवयित्री ने स्वर्णिम उजाले का बीज वपन कर दिया है अतएव उसकी अध्यापिका होने के नाते मैं यह अनुमान लगा सकती हूँ कि कवयित्री कि आगामी गीत रचना रूपी वृक्ष या फसल अवश्य लहलहावेगी, सुदृढ़ होगी।

अतिउत्साह कभी-कभी विनाश को जन्म देता है, किन्तु उत्साह जब उल्लास पूर्वक सत्कर्मों में प्रवृत्त होता है तब आनंद की सृष्टि करता है। अतएव मेरा दृढ़ विश्वास है कि कवयित्री के द्वारा बोये गये बीज अवश्य उसकी आगामी रचनाओं में पूर्ण गरिमा महिमा लिये होंगे ।

आशीष सहित,

डॉ सुषमा त्रिपाठी 

सेवानिवृत हिन्दी प्रवक्ता 

जुहारी देवी बालिका इन्टर कॉलेज 'कानपुर '

प्रकाशित रचनाएँ-

कथा संग्रह-

1-वृक्ष और बेल

2-करिश्मा कैप्सूल

3-मिडिल क्लास लड़की (शीघ्र प्रकाशित)

काव्य समवेत संकलन-

1-कॉफी टेबल और हम पाँच

2- गीत-पथ

3- गीत -पर्व

4- कविता आजकल








डॉ०  विजय लक्ष्मी त्रिवेदी


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